दिनांक 23.10.2015 को साहित्य अकादमी के कार्यकारी मंडल ने लेखकों-कलाकारों के ज़बरदस्त विरोध के दवाब में जो प्रस्ताव पारित किया है, वह न सिर्फ़ अपर्याप्त, बल्कि ग़लतबयानी का एक निर्लज्ज नमूना भी है.पांच लेखक-संगठनों -- जलेस, जसम, प्रलेस, दलेस और साहित्य-संवाद -- के आह्वान पर लेखकों, पाठकों और संस्कृतिकर्मियों का जो बड़ा समुदाय मौक़े पर मौन जुलूस की शक्ल में पहुंचा था, उसके द्वारा सौंपे गए ज्ञापन में चार मांगें रखी गयी थीं. उनमें से दो मांगों को साफ़ दरकिनार कर दिया गया. एक यह कि “कार्यकारी मंडल अकादमी के अध्यक्ष श्री तिवारी के उस रवैये के निंदा स्पष्ट शब्दों में करे जो उनके साक्षात्कारों और बयानों में सामने आया है.” ऐसे बयानों का हवाला भी ज्ञापन में दिया गया था और यह मांग की गयी थी कि “अगर श्री तिवारी लेखकों के प्रति अपने शर्मनाक रवैये और अपमानजनक बयानों के लिए स्पष्ट शब्दों में क्षमायाचना न करें तो उनके विरुद्ध प्रस्ताव पारित कर उनके इस्तीफ़े की मांग की जाए.” लेकिन अकादमी के प्रस्ताव में ऐसी निंदा और क्षमायाचना तो दूर, श्री तिवारी के नेतृत्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी है और उन्हें अकादमी की विरासत और गरिमा का रक्षक बताया गया है.
दूसरे, प्रो. कलबुर्गी की हत्या की, देर से ही सही, निंदा तो की गयी है, पर लेखकों की इस मांग को एक बार फिर अनसुना कर दिया गया है कि “कार्यकारी मंडल दिल्ली में अकादमी की ओर से प्रो. कलबुर्गी की हत्या पर शोक-सभा रखने का फ़ैसला ले और इस रूप में हिंसक असहिष्णुता के ख़िलाफ़ तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी की हिफ़ाज़त के पक्ष में अपना दृढ़ मत व्यक्त करे.” इससे ज़ाहिर है कि तथाकथित रूप से अकादमी की विरासत और गरिमा के रक्षक श्री तिवारी अभी भी कोई ठोस क़दम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं.
आज के ‘ इंडियन एक्सप्रेस’ में छपी एक खबर से अकादमी के प्रस्ताव में आये दावों की कलई उतर गयी है. प्रो. एम. एम. कलबुर्गी के पुत्र श्रीविजय कलबुर्गी ने कहा है कि उनकी हत्या के दो महीने होने को आये, अभी तक अकादमी की ओर से कोई फोन-कॉल या शोक-संवेदना उनके परिवार को नहीं मिली है. “अंततः उनकी हत्या के दो महीने बाद भारत के इस उच्चतम साहित्यिक फोरम ने मुंह खोला है और एक बयान जारी किया है.” ज़ाहिर है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने अकादमी के कार्यकारी मंडल को यह सूचना देकर गुमराह किया है कि प्रो. कलबुर्गी के परिवार से अविलम्ब संपर्क किया गया था या ऐसा प्रयास किया गया था. प्रस्ताव में कहा गया है, “कार्यकारी मंडल अपनी बैठक में स्वीकार करता है कि प्रो. कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने उपाध्यक्ष से फोन पर बात की कि वे प्रो. कलबुर्गी के परिवार से संपर्क करें और इस हत्या के ख़िलाफ़ अकादमी की ओर से संवेदनाएँ अर्पित करें।” श्रीविजय कलबुर्गी के बयान से साफ़ है कि किसी ने संवेदनाएं व्यक्त नहीं कीं .
लेकिन प्रस्ताव में जो कुछ कहा गया है , वह सच भी होता तो कम आघातजनक न होता . गौरतलब है कि लेखक की जघन्य हत्या के बाद अकादमी के अध्यक्ष शहीद के परिवार को फोन कर अपनी सम्वेदना देना तक जरूरी नहीं समझते. वे उपाध्यक्ष को फोन पर संदेश देते हैं कि वे सम्पर्क करें. अकादमी के प्रस्ताव में आधिकारिक रूप से दर्ज यह रवैया सामन्ती मनोवृत्ति और नौकरशाहाना कार्य पद्धति का स्पष्ट उदाहरण है. इसमें एक लेखक की सम्वेदनशीलता दूर दूर तक नज़र नहीं आती. बावजूद इसके, कार्यकारी मंडल ने अपने प्रस्ताव में अध्यक्ष की भूमिका की सराहना करना आवश्यक समझा है, इसे विडम्बना ही कहा जाएगा.
प्रस्ताव के इस अंश के आशय पर भी गौर करने की ज़रूरत है – “साहित्य अकादमी माँग करती है कि केंद्र और सभी राज्य सरकारें हर समाज और समुदाय के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का माहौल बनाए रखें और समाज के विभिन्न समुदायों से भी विनम्र अनुरोध करती है कि जाति, धर्म, क्षेत्र और विचारधाराओं के आधार पर मतभेदों को अलग रखकर एकता और समरसता को बनाए रखें।” इस वाक्य का अंतर्निहित पाठ यह है कि वर्तमान अशांति का मूल कारण समुदायों के बीच शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना का कमज़ोर पड़ना है. यानी अशांति की ज़िम्मेदारी पीड़ित समुदायों के मत्थे डाल दी गयी है, और सरकार को दारोगा की भूमिका सौंप दी गयी है. इस तरह अशान्ति के असली कारकों को छुपा और बचा लिया गया है. ये कारक हैं, साम्प्रदायिक बहुसंख्यकवाद का विस्तार और उसे मिल रहा शासकीय संरक्षण. यह प्रधानमंत्री के उस बयान के अनुरूप है जो दादरी काण्ड के कई दिनों बाद दिया गया था, जिसमें सभी समुदायों से मिलजुल कर रहने का आह्वान किया गया था, जैसे कि वे समुदाय स्वयं लड़ने पर आमदा हों और उन्हें लड़ाने के पीछे किसी राजनीतिक समूह की भूमिका न हो. यह एक ऐसी थियरी है जो बहुसंख्यकवादी उन्माद और हिंसा को सैद्धांतिक रक्षा कवच प्रदान करती है.
अकादमी ने जिस तरह चालाकी से इस मामले को निपटाने की कोशिश की है, उससे स्पष्ट है कि वह आरएसएस-भाजपा के दबाव में अपनी स्वायत्तता को बचाने में नाकाम हो रही है. इसका सबूत यह भी है कि वहां पर गिनती के तीन लेखकों के साथ सत्ताधारी दल और आरएसएस के सदस्य शर्मनाक तरीके से लेखकों के शांतिपूर्ण प्रतिरोध को कुचल देने के लिए बुला लिये गये थे। इतने विलम्ब के बावजूद अगर अकादमी अपनी भूलों का निवारण करने के प्रति गंभीर दिखती तो उसका स्वागत किया जाता, किन्तु दुखद है कि उसने लेखक समुदाय को इसका अवसर नहीं दिया. हम अकादमी के इस रवैये की घोर निंदा करते हैं और देशभर के लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों से अपील करते हैं कि अभिव्यक्ति की आज़ादी और जनवादी मूल्यों की रक्षा के इस अभियान को कमज़ोर न होने दें और एकजुटता की इस लहर को अपना बल प्रदान करें।
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ)
अशोक भौमिक (जन संस्कृति मंच)
अली जावेद (प्रगतिशील लेखक संघ)
हीरालाल राजस्थानी (दलित लेखक संघ)
अनीता भारती (साहित्य-संवाद)
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