Tuesday, 20 October 2015

जानी-मानी इतिहासकार और नई दिल्ली के जवाह लाल नेहरू विश्वविद्यालय में मानद आचार्य 83 वर्षीया रोमिला थापर प्राचीन इतिहास के शीर्षस्थ विद्वानों में गिनी जाती हैं. उनका एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘पब्लिक इन्टलेक्चुअल्स इन इंडिया’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है. प्रस्तुत साक्षात्कार में वह भारत में बढ़ रही असहिष्णुता, असहमति की ज़रूरत और उन गुणों की चर्चा कर रही हैं जिनसे जनता के बुद्धिजीवी की पहचान तय होती है.
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तो जनता का बुद्धिजीवी (पब्लिक इंटेलेक्चुअल) किसे कहेंगे?
कोई भी लोकतंत्र कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर टिका होता है, लेकिन लोकतंत्र की सेहत के लिए बेहद ज़रूरी है कि लोग बहस करें. जो फैसले लिए जा रहे हैं, उन पर अपनी सहमति और असहमति जाहिर करें. हमारा लोकतंत्र थोड़ा टेढ़ा है, क्योंकि हम अब भी बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के स्थाई अस्तित्व की हकीकत पर कायम हैं. एक सच्ची लोकतान्त्रिक व्यवस्था में, बहुसंख्यक उन्हें कहेंगे जो वैचारिक विविधता के बावजूद किसी ख़ास मुद्दे पर एक साथ खड़े होकर बहुसंख्या का निर्माण करते हैं. यह बहुसंख्या मुद्दा दर मुद्दा बदल सकती है. सच्चे लोकतंत्र में धर्म, जाति या ऐसी ही किसी पहचान के आधार पर कोई स्थाई बहुसंख्या तय नहीं की जा सकती. इस किस्म की बहुसंख्या लोकतंत्र को कमजोर ही करती है. ऐसे लोग ज़रूर होने चाहिए जो विभिन्न मुद्दों पर अपनी राय प्रकट करें और लोकतान्त्रिक कार्यप्रणाली पर टिप्पणी करते रहें. इसलिए जनता का बुद्धिजीवी ऐसा नागरिक हो सकता है, जो बोलने का जोखिम उठाने को तैयार हो. बेहतर होगा कि वह किसी पेशे या अनुशासन से सम्बन्ध रखता हो, क्योंकि इससे अनुशासित विचार का मार्ग प्रशस्त होता है.

आज जो ध्रुवीकरण भारत में दिखाई दे रहा है, इसका सिलसिला आपके मुताबिक क्या प्राचीन काल तक जाता है?
इस सवाल के जवाब में थोड़ा इतिहास लेखन (हिस्टोरिओग्राफी) पर गौर करना होगा कि हमने राष्ट्र की अवधारणा को किस तरह हासिल किया था. इसकी शुरुआत औपनिवेशिक विद्वत परंपरा में जेम्स मिल के साथ शुरू हुई. भारतीय इतिहास पर एक पुस्तक लिखते हुए उन्होंने इसे हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश काल में विभाजित किया. साथ ही उन्होंने दो राष्ट्रों के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया. यह इतिहास दृष्टि विभाजन के लिए चलाए गए आन्दोलन का आधार बनी. यही आज भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने की कोशिशों का भी आधार है. द्वि-राष्ट्र सिद्धांत दो चरमपंथी धार्मिक राष्ट्रवादों को जायज ठहराने की कोशिश करता है. मुस्लिम चरमपंथी राष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान का जन्म हुआ, इसलिए, यह तर्क दिया गया कि इसका हिन्दू समतुल्य हिन्दू राष्ट्र होना चाहिए. इस किस्म का तर्क एक धर्मनिरपेक्ष भारतीय राष्ट्र के औचित्य का विरोध करता है. अगर धर्मनिरपेक्षता को हटा देंगे तो राष्ट्र में लोकतंत्र बचा नहीं रहेगा.
हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा का मुद्दा 1930 में उठा था. परवर्ती भारतीय इतिहासकारों द्वारा नकारे जाने के बावजूद, यह अवधारणा बदली नहीं गयी. आज हम जो कुछ अनुभव कर रहे हैं वह अंशतः हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का ही प्रयास है. मेरे विचार से इस बार आम चुनाव ने हिन्दू राष्ट्र के समर्थकों में यह भावना पैदा कर दी है कि यह आज नहीं तो कभी नहीं वाली परिस्थिति है. इसलिए इसका कुल मिलाकर मतलब हुआ कि 1930 के हिंदुत्व प्रवर्तकों की शिक्षाओं की ओर लौटा जाय. पितृभूमि और पुण्यभूमि हमारे पुरखों और हिन्दुओं के धर्म का निवास है. वे एक ऐसे राष्ट्र के विशेषाधिकार प्राप्त प्राथमिक नागरिक हैं, जिसकी सीमाएं ब्रिटिश भारत में तय की गईं! आज जो कुछ हो रहा है, वह प्रमुखतः ऐसे माहौल को बनाने की कोशिशों का हिस्सा है जो हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार्यता प्रदान करता हो. इसके लिए अगर लोगों को आतंकित करना पड़े, तो वह भी किया जा सकता है.
यह बड़ा दिलचस्प है कि आए दिन कोई न कोई कहता है, “हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता को क्यों डाला गया है?” सरसरी तौर पर यह यूं ही हवाबाजी में उछाला गया जुमला लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हवाबाजी नहीं है. क्योंकि धार्मिक राज्य की स्थापना यदि करनी है तो धर्मनिरपेक्षता के विचार से छुटकारा पाना ज़रूरी कदम होगा. आज हम जिस सच्चाई से रूबरू हैं, वह हिन्दू (हिन्दूइज्म) से कहीं ज्यादा हिंदुत्व की ओर बढ़ते कदम हैं. हिन्दू और हिंदुत्व में, मैं एक फर्क करना चाहूंगी. हिंदू एक धर्म है, जबकि हिंदुत्व धर्म आधारित राजनीतिक विचारधारा. धार्मिक राष्ट्र का वाहक बनाना हिन्दू धर्म का कभी भी मंतव्य नहीं रहा, इसलिए हिंदुत्व धर्म का पुनर्निरूपण है ताकि हिन्दू राष्ट्र के लक्ष को हासिल किया जा सके. जिस धार्मिक पुनरुत्थान से आज हम मुखातिब हैं वह महज पूजा-पाठ और आस्था की पुनर्स्थापना नहीं है बल्कि उसके पीछे एक राजनीतिक परियोजना काम कर रही है- एक ख़ास तरह की राज्य व्यवस्था को हकीकत में बदलने की योजना.

अपनी किताब में आपने जनता के बुद्धिजीवियों की चर्चा की है- बुद्ध, एकनाथ... ऐसे लोग जिन्होंने बोलने की हिम्मत की.
जिन लोगों का मैंने जिक्र किया है वे उन अर्थों में जनता के (पब्लिक) बुद्धिजीवी नहीं थे, जिन अर्थों में हम आज उन्हें समझते हैं. वे ऐसे बुद्धिजीवी थे जो हर धर्म की कट्टरता और सभी तरह के विचारों पर सवाल उठाने का माद्दा रखते थे. इसलिए, वे आज के जनता के बुद्धिजीवियों के पुरखे कहे जा सकते हैं. और मेरी कोशिश इस बात पर जोर देने की थी कि हमें भारत की विचार परंपरा की जानकारी होनी चाहिए. वैदिक ब्राह्मणवाद का सामना उन लोगों से था जिहें वह नास्तिक कहता था- यानी श्रमण, बौद्ध, जैनी और अन्य भिक्षु. और दूसरी और उनके सामने खड़े थे चार्वाक या भौतिकतावादी. धर्म को किसी अखंड सत्ता की तरह नहीं लिया जाता था बल्कि यह एक-दूसरे को ढकने वाले पंथों की एक शृंखला थी- शास्त्र मार्गियों से घनघोर शास्त्रविरोधियों तक. इस पैटर्न को आगे आने वाले धर्मों ने भी स्वीकार किया. इसके पीछे एक स्पष्ट कारण पंथ और जाति का परस्पर उलझा हुआ स्वरूप माना जा सकता है. सभी धर्मों ने जाति को कमोबेश आत्मसात कर लिया था. सभी धर्मों में दलितों के साथ होने वाला भेदभाव इस बात को प्रदर्शित करता है.

धर्मावलम्बियों व धर्म पर सवाल उठाने वालों के बीच मतभेद प्राचीन भारत में भी रहे हैं. ये मतभेद कैसे सुलझाए जाते थे?
मतभेद हमेशा सुलझते नहीं थे- जैसा कि किसी भी जीवंत संस्कृति में मतभेद बरकरार रहते हैं. लेकिन कई बार वे विभिन्न सम्प्रदायों के बीच संवाद के जरिये अंशतः सुलझा लिए जाते थे. विचारों में मतभेद स्वीकार्य थे और उन पर बहस होती थी. इनमें से कई बहसों के पाठ आज भी हमारे पास हैं. ऐसा ही एक बेहद दिलचस्प पाठ 16वीं सदी में एकनाथ का है. एकनाथ महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे जो अलग तरह के विचार रखते थे. उन्होंने हिन्दू-तुर्क धर्मों के समन्वय पर बड़े ही व्यंग्यात्मक तरीके से लिखा था. बेशक, जहां राज्यश्रय पाने की होड़ होती थी वहां सम्बन्ध शत्रुतापूर्ण हो जाते थे. पहली सहस्राब्दी के मध्य में अनेक बौद्ध भिक्षुओं को गांधार में मार डाला गया था और इसके कुछ सदियों बाद दक्षिण भारत में कुछ जैन मुनियों की भी हत्या की गयी. लेकिन यूरोप की तुलना में भारत के विभिन्न विचारधारात्मक समूहों के बीच अपेक्षाकृत ज्यादा सामंजस्यपूर्ण संवाद देखा जा सकता है. यूरोप में तो सुकरात को जहर का प्याला पीना पड़ा था और मध्यकाल में वहां कैथोलिक चर्च के वर्चस्व में किताबों पर प्रतिबन्ध लगे और लेखकों को जलाया गया या उन्हें अपनी बातें वापस लेने पर मजबूर किया गया. गौरतलब है कि आज भारत में स्वतंत्र चेता और तर्कवादियों के साथ आश्चर्यजनक रूप से वही सलूक हो रहा है जो मध्यकालीन यूरोप में ऐसे लोगों के साथ वेटिकन ने किया था.

क्या भारत में आर्थिक बदलावों ने इस तरह के सोच को बढ़ावा दिया है?
बहुत हद तक हां. मेरा ख़याल है कि सोच में इस किस्म का मोड़ भारत में 1991 में आया. यह स्वातंत्रयोत्तर भारत के लिए एक आमूलचूल परिवर्तन का बिंदु है. अर्थ व्यवस्था को बदलने के इस प्रयास का स्खलनकारी प्रभाव यह हुआ कि अब यहां महत्वाकांक्षी युवाओं से भरपूर एक मध्यवर्ग पैदा हो गया, जिन्हें एक बेहद घटिया शिक्षा व्यवस्था ने तैयार किया था. इस शिक्षा ने उन्हें कुछ भी काम का नहीं सिखाया. उन्होंने नहीं सीखा कि चिंतन कैसे किया जाता है, इम्तहान के दायरे से बाहर पढ़ा कैसे जाता है. सूचना तो अक्सर अफवाह से भी मिल जाती है. युवा खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं. ऐसी तमाम नौकरियों के लिए होने वाली भीषण मारामारी से असुरक्षा की भावना जन्म लेती है, जिनके लिए वे ठीक से तैयार नहीं. ज्ञान की जगह तमाम तरह की मिथकीय कपोल कल्पनाओं की तगड़ी खुराक इस अपर्याप्त शिक्षा की रही सही कसर पूरी कर उनकी बुद्धिमत्ता का और भी मजाक उड़ाती है. ऐसी परिस्थितियों में रह रहे युवा सभी तरह के धर्मों के अतिवादी विचारों के अनुयायी बनने के लिए पूरी तरह से तैयार होते हैं.

आप लिखती हैं कि जनता के बुद्धिजीवियों को खुले दिमाग का होना चाहिए, लेकिन क्या जनता के संकीर्णतावादी बुद्धिजीवी नहीं हो सकते?
हो सकते हैं, बशर्ते ऐसे बुद्धिजीवी के पास उस समाज का सुसंगत खाका होना चाहिए, जिसकी वह वकालत करता है और उस पर वह खुले दिमाग से बहस के लिए पूरी तरह से तैयार हो. जनता के बुद्धिजीवी से न तो तानाशाहीपूर्ण रवैये की और न ही दूसरों की दलीलें गम्भीरतापूर्वक सुने बिना अपने एकलौते जवाब पर अड़े रहने की उम्मीद की जा सकती है. बहस का निषेध न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार का, बल्कि भारत की दार्शनिक परंपरा का भी निषेध है. यह परंपरा सबसे पहले हर संभव सीमा तक विरोधी विचार को सही-सही पेश करने और फिर उसका खंडन करने की वकालत करती है. प्रस्तुति और खंडन की इस कवायद के बीच सहमती के बिंदु भी ढूंढे जा सकते हैं. इस पद्धति में विरोधी विचार को जानना और उसका अध्ययन करना शामिल है. बिना किसी अहंकार के मैं जोर देकर कहना चाहूंगी कि किसी मुद्दे पर बहस के लिए न्यूनतम बौद्धिक निवेश की भी दरकार होती है.

हाल के दिनों में तीन विशिष्ट विद्वान, तर्कवादी मार डाले गए. इस तरह के वातावरण में जनता के बुद्धिजीवी की क्या भूमिका होनी चाहिए?
मैं समझती हूं कि उन्हें आगे आकर इस तरह के कृत्यों का कड़ा विरोध करना चाहिए, जैसा कि हाल में कई लेखकों ने अत्यंत प्रभावी तरीके से अपने सम्मानों व पुरस्कारों को वापस लौटाकर और अपने फैसले के बारे में वक्तव्य देकर किया है. मेरे ख़याल से यह बहुत अच्छा कदम है. जनता के बुद्धिजीवियों से यही अपेक्षित है कि जहां ज़रूरी हो वहां अपनी असहमति दर्ज करें और उस पर चर्चा करें. चुपचाप हत्या करना या गैरकानूनी ढंग से मौत की सजा दे देना कतई हल नहीं है.

जनता के बुद्धिजीवी अपने विचार प्रकट कर सकते हैं लेकिन क्या वे समाज को प्रभावित भी कर सकते हैं?
अगर जनता के बुद्धिजीवी कोई पक्ष लेते हैं तो कम से कम यह तो होता ही है कि और ज्यादा लोग जो कुछ हो रहा है उस पर विचार करने लगते हैं. संभव है वे लोग तत्काल सहमत न हों, लेकिन उनके मन में एक छोटा सा विचार, एक छोटी सी शंका पैदा होने लगती है. जनता के बुद्धिजीवी कोई राजनीतिक दल नहीं हैं. वे सरकार नहीं बदल सकते, लेकिन किस तरह शासन चलना चाहिए, इस बारे में लोगों के नज़रिए को बदलने में मदद कर सकते हैं.

कुछ लोग इसे स्थापित कुलीन और महत्वाकांक्षी ‘नए’ वर्गों के बीच संघर्ष के रूप में देखते हैं...
इस मामले में एक आधारभूत बात जो हम भूल रहे हैं, वह यह कि हमने अपने लोगों को शिक्षित करना छोड़ दिया है. यह एक बहुत-बहुत बड़ी कमी है, उतनी ही बड़ी जितनी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या. यह बात किसी ने रखांकित नहीं की, जनता ने भी नहीं. पैसे के मामले में असमानता है लेकिन कुलीन महज पैसे का कुलीन है, बौद्धिकता का नहीं. काश वह होता! इस समस्या को बुद्धिजीवी बनाम आर्थिक रूप से गरीब की लड़ाई बनाकर पेश करना एक राजनीतिक चाल है, जहां गरीबों की मदद का दावा अकसर वे करते हैं जो उनसे सबसे ज्यादा दूर हैं.

(अनुवाद: आशुतोष उपाध्याय)

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