१. बच्चे एक दिन / अशोक वाजपेयी
बच्चे
अंतरिक्ष में
एक दिन निकलेंगे
अपनी धुन में,
और बीनकर ले
आयेंगे
अधखाये फलों और
रकम-रकम के
पत्थरों की तरह
कुछ तारों को ।
आकाश को पुरानी
चांदनी की तरह
अपने कंधों पर
ढोकर
अपने खेल के लिए
उठा ले आयेंगे
बच्चे
एक दिन ।
बच्चे एक दिन
यमलोक पर धावा बोलेंगे
और छुड़ा ले
आयेंगे
सब पुरखों को
वापस पृथ्वी पर,
और फिर आँखें
फाड़े
विस्मय से सुनते
रहेंगे
एक अनन्तकहानी
सदियों तक ।
बच्चे एक दिन....
कदममिलाकर चलना
होगा / अटल बिहारी वाजपयी
बाधाएँ आती हैं
आएँ
घिरें प्रलय की
घोर घटाएँ,
पावों के नीचे
अंगारे,
सिर पर बरसें यदि
ज्वालाएँ,
निज हाथों में
हँसते-हँसते,
आग लगाकर जलना
होगा।
क़दम मिलाकर चलना
होगा।
हास्य-रूदन में,
तूफ़ानों में,
अगर असंख्यक
बलिदानों में,
उद्यानों में,
वीरानों में,
अपमानों में,
सम्मानों में,
उन्नत मस्तक,
उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना
होगा।
क़दम मिलाकर चलना
होगा।
उजियारे में,
अंधकार में,
कल कहार में,
बीच धार में,
घोर घृणा में,
पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में,
दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत
आकर्षक,
अरमानों को ढलना
होगा।
क़दम मिलाकर चलना
होगा।
सम्मुख फैला अगर
ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन
कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित
कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ
न मांगते,
पावस बनकर ढ़लना
होगा।
क़दम मिलाकर चलना
होगा।
कुछ काँटों से
सज्जित जीवन ,
प्रखर प्यार से
वंचित यौवन,
नीरवता से
मुखरितमधुबन,
परहित अर्पित
अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत
आहुति में,
जलना होगा,
गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना
होगा।
टूट सकते हैं मगर
हम झुक नहीं सकते/ अटल बिहारी वाजपेयी
सत्य का संघर्ष
सत्ता से
न्याय लड़ता
निरंकुशता से
अंधेरे ने दी
चुनौती है
किरण अंतिम अस्त
होती है
दीप निष्ठा का
लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे
भूकंप
यह बराबर का नहीं
है युद्ध
हम निहत्थे,
शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र
से है सज्ज
और पशुबल हो उठा
निर्लज्ज
किन्तु फिर भी
जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया
चरण
प्राण-पण से
करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग
अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ
लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर
हम झुक नहीं सकते
धन्य प्रिया तुम
जागीं,
ना जाने दुख भरी
रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।
जीवन नदिया,
बैरी केवट, पार न कोई अपना
घाट पराया,
देसबिराना, हाट-बाट सब सपना ।
क्या मन की,
क्या तन की, किहनी अपनी अंसुअनपागी ।
दाना-पानी,
ठौर ठिकाना, कहां बसेरा अपना
निस दिन चलना,
पल-पल जलना, नींद भई इक छलना ।
पाखी रूंख न पाएं,
अंखियां बरस-बरस की जागी ।
प्रेम न सांचा,
शपथ न सांचा, सांच न संग हमारा
एक सांस का जीवन
सारा, बिरथा का चौबारा ।
जीवन के इस पल
फिर तुम क्यों जनम-जनम की लागीं ।
धन्य प्रिया तुम
जागीं,
ना जाने दुख भरी
रैन में कब तेरी अंखियां लागीं ।
आओ कि कोई ख़्वाब
बुनें कल के वास्ते/साहिरलुधियानवी
आओ कि कोई ख़्वाब
बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज
के संगीन[1] दौर[2] की
डस लेगी
जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र[3]
फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें
गो हम से भागती
रही ये तेज़-गाम[4] उम्र
ख़्वाबों के आसरे
पे कटी है तमाम उम्र
ज़ुल्फ़ों के
ख़्वाब, होंठों के ख़्वाब,
और बदन के ख़्वाब
मेराज-ए-फ़न[5]
के ख़्वाब, कमाल-ए-सुख़न[6] के ख़्वाब
तहज़ीब-ए-ज़िन्दगी[7]
के, फ़रोग़-ए-वतन[8] के ख़्वाब
ज़िन्दाँ[9]
के ख़्वाब, कूचा-ए-दार-ओ-रसन[10] के ख़्वाब
ये ख़्वाब ही तो
अपनी जवानी के पास थे
ये ख़्वाब ही तो
अपने अमल[11] के असास[12]
थे
ये ख़्वाब मर गये
हैं तो बे-रंग है हयात[13]
यूँ है कि जैसे
दस्त-ए-तह-ए-सन्ग[14] है हयात
आओ कि कोई ख़्वाब
बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज
के संगीन दौर की
डस लेगी
जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न
कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें
तू हिन्दू बनेगा
ना मुसलमान बनेगा/ साहिरलुधियानवी
तू हिन्दू बनेगा
ना मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद
है इन्सानबनेग
कुदरत ने तो बनाई
थी एक ही दुनिया
हमने उसे हिन्दू
और मुसलमान बनाया
तू सबके लिये अमन
का पैगाम बनेगा
इन्सान की औलाद
है इन्सान बनेगा
ये दिन ये ईमान
धरम बेचने वाले
धन-दौलत के भूखे
वतन बेचने वाले
तू इनके लिये मौत
का ऐलान बनेगा
इन्सान की औलाद
है इन्सान बनेगा
============================================
कोलम्बस का जहाज/
कुंवरनारायण
बार-बार लौटता है
कोलम्बस का जहाज
खोज कर एक नई
दुनिया,
नई-नई
माल-मंडियाँ,
हवा में झूमते
मस्तूल
लहराती झंडियाँ।
बाज़ारों में दूर
ही से
कुछ चमकता तो है
−
हो सकता है सोना
हो सकती है पालिश
हो सकता है हीरा
हो सकता है
काँच...
ज़रूरी है पक्की
जाँच।
ज़रूरी है
सावधानी
पृथ्वी पर लौटा
है अभी-अभी
अंतरिक्ष यान
खोज कर एक ऐसी
दुनिया
जिसमें न जीवन है
− न हवा − न पानी –
बात सीधी थी पर/
कुंवर नारायण
बात सीधी थी पर
एक बार
भाषा के चक्कर
में
ज़रा टेढ़ी फँस
गई ।
उसे पाने की
कोशिश में
भाषा को उलटा
पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से
बाहर आये-
लेकिन इससे भाषा
के साथ साथ
बात और भी पेचीदा
होती चली गई ।
सारी मुश्किल को
धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को
खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता
चला जा रहा था
क्यों कि इस करतब
पर मुझे
साफ़ सुनायी दे
रही थी
तमाशाबीनों की
शाबाशी और वाह वाह ।
आख़िरकार वही हुआ
जिसका मुझे डर था –
ज़ोर ज़बरदस्ती
से
बात की चूड़ी मर
गई
और वह भाषा में
बेकार घूमने लगी ।
हार कर मैंने उसे
कील की तरह
उसी जगह ठोंक
दिया ।
ऊपर से ठीकठाक
पर अन्दर से
न तो उसमें कसाव
था
न ताक़त ।
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना
पोंछती देख कर पूछा –
“क्या तुमने भाषा
को
सहूलियत से बरतना
कभी नहीं सीखा ?”
अबकी बार लौटा तो
/ कुंवर नारायण
अबकी बार लौटा तो
बृहत्तर लौटूंगा
चेहरे पर लगाए
नोकदार मूँछें नहीं
कमर में बांधें
लोहे की पूँछे नहीं
जगह दूंगा साथ चल
रहे लोगों को
तरेर कर न
देखूंगा उन्हें
भूखी शेर-आँखों
से
अबकी बार लौटा तो
मनुष्यतर लौटूंगा
घर से निकलते
सड़को पर चलते
बसों पर चढ़ते
ट्रेनें पकड़ते
जगह बेजगह कुचला
पड़ा
पिद्दी-सा जानवर
नहीं
अगर बचा रहा तो
कृतज्ञतर लौटूंगा
अबकी बार लौटा तो
हताहत नहीं
सबकेहिताहित को
सोचता
पूर्णतर लौटूंगा
बर्फ़ पिघलेगी जब
पहाड़ों से/ गुलज़ार
बर्फ़ पिघलेगी जब
पहाड़ों से
और वादी से कोहरा
सिमटेगा
बीज अंगड़ाई लेके
जागेंगे
अपनी अलसाई आँखें
खोलेंगे
सब्ज़ा बह
निकलेगा ढलानों पर
गौर से देखना
बहारों में
पिछले मौसम के भी
निशाँ होंगे
कोंपलों की उदास
आँखों में
आँसुओं की नमी
बची होगी।
किताबें झाँकती
हैं बंद आलमारी के शीशों से / गुलज़ार
किताबें झाँकती
हैं बंद आलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से
तकती हैं
महीनों अब
मुलाकातें नहीं होती
जो शामें उनकी
सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर गुज़र
जाती है कम्प्यूटर के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती
हैं क़िताबें
उन्हें अब नींद
में चलने की आदत हो गई है
जो कदरेंवो
सुनाती थी कि जिनके
जो रिश्ते वो
सुनाती थी वो सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफा पलटता
हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के
मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के
सूखे टुंड लगते हैं वो अल्फ़ाज़
जिनपर अब कोई
मानी नहीं उगते
जबां पर जो
ज़ायका आता था जो सफ़ा पलटने का
अब ऊँगली क्लिक
करने से बस झपकी गुजरती है
किताबों से जो
ज़ातीराब्ता था, वो कट गया है
कभी सीने पर रखकर
लेट जाते थे
कभी गोदी में
लेते थे
कभी घुटनों को
अपने रिहल की सूरत बनाकर
नीम सजदे में
पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो
मिलता रहेगा आइंदा भी
मगर वो जो
किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए
रुक्के
किताबें मँगाने,
गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही
होंगे!!
रिश्ते बस रिश्ते
होते हैं/ गुलज़ार
रिश्ते बस रिश्ते
होते हैं
कुछ इक पल के
कुछ दो पल के
कुछ परों से
हल्के होते हैं
बरसों के तले
चलते-चलते
भारी-भरकम हो
जाते हैं
कुछ भारी-भरकम
बर्फ़ के-से
बरसों के तले
गलते-गलते
हलके-फुलके हो
जाते हैं
नाम होते हैं
रिश्तों के
कुछ रिश्ते नाम
के होते हैं
रिश्ता वह अगर मर
जाये भी
बस नाम से जीना
होता है
बस नाम से जीना
होता है
रिश्ते बस रिश्ते
होते हैं
दिल मियाँ मिट्ठू
थे
मर्ज़ी के पिट्ठू
थे
हो दिल मियाँ
मिट्ठू थे
अरे मर्ज़ी के
पिट्ठू थे
वो मेरी कहाँ
सुनते थे
अरे अपनी ही धुन
पे थे
दिल मियाँ मिट्ठू
थे
मियाँ जी बच बच
के चलना
दुनिया है हरजाई
हरी हरी जो लागे
घास खड़ी है काई
अरे काई पे फिसले
जो सुर्र करके
फुर्र करके तोते
उड़ गए
फुर्रफुर्र करके
तोते उड़ गए
इश्क में यूँ
फिसले मियाँ
हाथों के तोते
उड़ गए
तोते उड़ गए
फुर्र करके तोते
उड़ गए
फुर्रफुर्र करके
तोते उड़ गए
दिल मियाँ मिट्ठू
थे
मर्ज़ी के पिट्ठू
थे
अकड़े तो तगड़े
से
और पकडे तो मकड़े
से
दिल मियाँ मिट्ठू
थे मिट्ठू मियाँ
मियाँ जी मुड़
मुड़ के न देखो
मुड़ मुड़ न देखो
मियाँ जी
तोते उड़ गए /
गुलज़ार
अजी नज़रों में
कोई नहीं है
नज़र लगाईं थी
अंखियाँ हाँ
सालों से सोई
नहीं हैं
सपने से धंसने
पेसुर्र
तोते! फुर्र करके
तोते उड़ गए
ओ पतली गली में
फिसले मियाँ
हाथो के तोते उड़
गए
मेरे नग
मुंदरीविच पा दे
तेपावे मेरी
जिंदकडलै
के पावे मेरी
जिंदकडलै
अक्खी रात मैं गई
तबेले
माझी मिल जावे.
मुक जान झमेले
माझी मिल जावे...
मुक जान झमेले
मेरी सेज ते अकल
बिछा दे
तेपावे मेरी
जिंदकडलै
के पावे मेरी
जिंदकडलै
फुर्र करके तोते
उड़ गए
फुर्रफुर्र करके
तोते उड़ गए
फुर्र करके तोते
उड़ गए
फुर्रफुर्र करके
तोते उड़ गए
अब यह चिड़िया
कहाँ रहेगी / महादेवी वर्मा
आँधी आई जोर शोर
से,
डालें टूटी हैं
झकोर से।
उड़ा घोंसला अंडे
फूटे,
किससे दुख की बात
कहेगी!
अब यह चिड़िया
कहाँ रहेगी?
हमने खोला आलमारी
को,
बुला रहे हैं
बेचारी को।
पर
वोचीं-चींकर्राती है
घर में तो वो
नहीं रहेगी!
घर में पेड़ कहाँ
से लाएँ,
कैसे यह घोंसला
बनाएँ!
कैसे फूटे अंडे
जोड़े,
किससे यह सब बात
कहेगी!
अब यह चिड़िया
कहाँ रहेगी?
नानी का गुलकंद /
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
मुझे तुम्हारी
नानीजी ने,
डब्बा-भर गुलकंद
दिया।
और तुम्हारे
नानीजी ने
कविता दी औ’
छंद दिया।।
दोनों लेकर निकला
ही था,
बटमारों ने घेर
लिया।
छीनछान गुलकंद खा
गए
कविता सुन मुँह
फेर लिया।।
पर कुछ समझदार भी
थे,
जो कविता सुनकर
गले लगे।
अपना दे गुलकंद
उन्होंने
खाली डब्बा बंद
किया।।
अब नानी को लिख
देना,
उनका गुलकंद
सलामत है।
और हमें बतलाना
कविता
के बारे में क्या
मत है।।
घोड़ा /
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
अगर कहीं मैं
घोड़ा होता, वह भी लंबा-चौड़ा
होता।
तुम्हें पीठ पर
बैठा करके, बहुत तेज मैं दोड़ा
होता।।
पलक झपकते ही ले
जाता, दूर पहाड़ों की वादी में।
बातें करता हुआ
हवा से, बियाबान में, आबादी में।।
किसी झोंपड़े के
आगे रुक, तुम्हें छाछ औ’ दूध पिलाता।
तरह-तरह के
भोले-भाले इनसानों से तुम्हें मिलाता।।
उनके संग जंगलों
में जाकर मीठे-मीठे फल खाते।
रंग-बिरंगी
चिड़ियों से अपनी अच्छी पहचान बनाते।।
झाड़ी में दुबके
तुमको प्यारे-प्यारे खरगोश दिखाता।
और उछलते हुए
मेमनों के संग तुमको खेल खिलाता।।
रात ढमाढम ढोल,
झमाझमझाँझ, नाच-गाने में कटती।
हरे-भरे जंगल में
तुम्हें दिखाता, कैसे मस्ती
बँटती।।
सुबह नदी में नहा,
दिखाता तुमको कैसे सूरज उगता।
कैसे तीतर दौड़
लगाता, कैसे पिंडुक दाना चुगता।।
बगुले कैसे ध्यान
लगाते, मछली शांत डोलती कैसे।
और टिटहरी आसमान
में, चक्कर काट बोलती कैसे।।
कैसे आते हिरन
झुंड के झुंड नदी में पानी पीते।
कैसे छोड़ निशान
पैर के जाते हैं जंगल में चीते।।
हम भी वहाँ निशान
छोड़कर अपना, फिर वापस आ जाते।
शायद कभी खोजते
उसको और बहुत-से बच्चे आते।।
तब मैं अपने पैर
पटक, हिन-हिन करता, तुम भी खुश होते।
‘कितनी नकली
दुनिया यह अपनी’ तुम सोते में भी
कहते।।
लेकिन अपने मुँह
में नहीं लगाम डालने देता तुमको।
प्यार उमड़ने पर
वैसे छू लेने देता अपनी दुम को।।
नहीं दुलत्ती
तुम्हें झाड़ता, क्योंकि उसे खाकर
तुम रोते।
लेकिन सच तो यह
है बच्चो, तब तुम ही मेरी दुम
होते।।
तूफानों की ओर
घुमा दो नाविक / शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
तूफानों की ओर
घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष
उगला है
लहरों का यौवन
मचला है
आज हृदय में और
सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर
घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर
में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस
तोलो
कभी-कभी मिलता
जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर
घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह
पहचाने
मिट्टी के पुतले
मानव ने
कभी न मानी हार
तूफानों की ओर
घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी
क्षमता है
पर माँझी भी कब
थकता है
जब तक साँसों में
स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं
रुकता है
इसके ही बल पर कर
डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर
घुमा दो नाविक निज पतवार
कौन सिखाता है
चिडियों को / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
कौन सिखाता है
चिड़ियों को चीं-चीं, चीं-चीं करना?
कौन सिखाता
फुदक-फुदक कर उनको चलना फिरना?
कौन सिखाता फुर्र
से उड़ना दाने चुग-चुग खाना?
कौन सिखाता तिनके
ला-ला कर घोंसले बनाना?
कौन सिखाता है
बच्चों का लालन-पालन उनको?
माँ का प्यार,
दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको?
कुदरत का यह खेल,
वही हम सबको, सब कुछ देती।
किन्तु नहीं बदले
में हमसे वह कुछ भी है लेती।
हम सब उसके अंश
कि जैसे तरू-पशु–पक्षी सारे।
हम सब उसके वंशज
जैसे सूरज-चांद-सितारे।
कौन? / सोहनलालद्विवेदी
किसने बटन हमारे
कुतरे?
किसने स्याही को
बिखराया?
कौन चट कर गया
दुबक कर
घर-भर में अनाज
बिखराया?
दोना खाली रखा रह
गया
कौन ले गया उठा
मिठाई?
दो टुकड़े तसवीर
हो गई
किसने रस्सी काट
बहाई?
कभी कुतर जाता है
चप्प्ल
कभी कुतर जूता है
जाता,
कभी खलीता पर बन
आती
अनजाने पैसा गिर
जाता
किसने जिल्द काट
डाली है?
बिखर गए पोथी के
पन्ने।
रोज़ टाँगता
धो-धोकर मैं
कौन उठा ले जाता
छन्ने?
कुतर-कुतर कर
कागज़ सारे
रद्दी से घर को
भर जाता।
कौन कबाड़ी है जो
कूड़ा
दुनिया भर का घर
भर जाता?
कौन रात भर
गड़बड़ करता?
हमें नहीं देता
है सोने,
खुर-खुर करता
इधर-उधर है
ढूँढा करता
छिप-छिप कोने?
रोज़ रात-भर जगता
रहता
खुर-खुर इधर-उधर
है धाता
बच्चों उसका नाम
बताओ
कौन शरारत यह कर
जाता?
क्यों / श्रीनाथ
सिंह
पूछूँ तुमसे एक
सवाल,
झटपट उत्तर दो
गोपाल!
मुन्ना के क्यों
गोरे गाल?
पहलवान क्यों
ठोके ताल?
भालू के क्यों
इतने बाल?
चले साँप क्यों
तिरछी चाल?
नारंगी क्यों
होती लाल?
घोड़े के क्यों
लगती नाल?
झरना क्यों बहता
दिन-रात?
जाड़े में क्यों
काँपे गात?
हफ्ते में क्यों
दिन हैं सात?
बुडढ़ों के क्यों
टूटे दाँत?
ढम-ढम-ढम क्यों
बोले ढोल?
पैसा क्यों होता
है गोल?
मीठा क्यों होता
है गन्ना?
क्यों चमचम
चमकीला पन्ना?
लल्ली खेल रही
क्यो गुड़िया?
बनिया बाँध रहा
क्यों पुड़िया?
बालक क्यों डरते
सुन हौआ?
काँवकाँव क्यों
करता कौआ?
नानी को क्यों
कहते नानी?
पानी को क्यों
कहते पानी?
हाथी क्यों होता
है काला?
दादी फेर रही
क्यों माला?
पककर फल क्यों
होता पीला?
आसमान क्यों होता
नीला?
आँख मूँद क्यों
सोते हो तुम?
पिटने पर क्यों
रोते हो तुम?
खिलौनेवाला /
सुभद्राकुमारीचौहान
वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर
से आया है।
कई तरह के
सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया
है।
हरा-हरा तोता
पिंजड़े में
गेंद एक पैसे
वाली
छोटी सी मोटर
गाड़ी है
सर-सर-सर चलने
वाली।
सीटी भी है कई
तरह की
कई तरह के सुंदर
खेल
चाभी भर देने से
भक-भक
करती चलने वाली
रेल।
गुड़िया भी है
बहुत भली-सी
पहने कानों में
बाली
छोटा-सा 'टीसेट' है
छोटे-छोटे हैं
लोटा थाली।
छोटे-छोटे
धनुष-बाण हैं
हैं छोटी-छोटी
तलवार
नए खिलौने ले लो
भैया
ज़ोर-ज़ोर वह रहा
पुकार।
मुन्नू ने
गुड़िया ले ली है
मोहन ने मोटर
गाड़ी
मचल-मचल सरला
करती है
माँ ने लेने को
साड़ी
कभी खिलौनेवाला
भी माँ
क्या साड़ी ले
आता है।
साड़ी तो वह
कपड़े वाला
कभी-कभी दे जाता
है
अम्मा तुमने तो
लाकर के
मुझे दे दिए पैसे
चार
कौन खिलौने लेता
हूँ मैं
तुम भी मन में
करो विचार।
तुम सोचोगी मैं
ले लूँगा।
तोता, बिल्ली, मोटर, रेल
पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा
ये तो हैं बच्चों
के खेल।
मैं तो तलवार
खरीदूँगा माँ
या मैं लूँगा
तीर-कमान
जंगल में जा,
किसी ताड़का
को मारुँगा राम
समान।
तपसी यज्ञ करेंगे,
असुरों-
को मैं मार
भगाऊँगा
यों ही कुछ दिन
करते-करते
रामचंद्र मैं बन
जाऊँगा।
यही रहूँगा कौशल्या
मैं
तुमको यही
बनाऊँगा।
तुम कह दोगी वन
जाने को
हँसते-हँसते
जाऊँगा।
पर माँ, बिना तुम्हारे वन में
मैं कैसे रह
पाऊँगा।
दिन भर घूमूँगा
जंगल में
लौट कहाँ पर
आऊँगा।
किससे लूँगा पैसे,
रूठूँगा
तो कौन मना लेगा
कौन प्यार से
बिठा गोद में
मनचाही चींजे़
देगा।
चांद एक दिन /
रामधारी सिंह "दिनकर"
हठ कर बैठा चांद
एक दिन, माता से यह बोला
सिलवा दो माँ
मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला
सन-सन चलती हवा
रात भर जाड़े से मरता हूँ
ठिठुर-ठिठुर कर
किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और
यह मौसम है जाड़े का
न हो अगर तो ला
दो कुर्ता ही को भाड़े का
बच्चे की सुन बात,
कहा माता ने 'अरे सलोने`
कुशल करे भगवान,
लगे मत तुझको जादू टोने।
जाड़े की तो बात
ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ
एक नाप में कभी
नहीं तुझको देखा करती हूँ
कभी एक अंगुल भर
चौड़ा, कभी एक फुट मोटा
बड़ा किसी दिन हो
जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज,
किसी दिन ऐसा भी करता है
नहीं किसी की भी
आँखों को दिखलाई पड़ता है
अब तू ही ये बता,
नाप तेरी किस रोज लिवायें
सी दे एक झिंगोला
जो हर रोज बदन में आये!
चांद का कुर्ता /
रामधारी सिंह "दिनकर"
हार कर बैठा चाँद
एक दिन, माता से यह बोला,
‘‘सिलवा दो माँ
मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला।
सनसन चलती हवा
रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुरकर
किसी तरह यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और
यह मौसम है जाड़े का,
न हो अगर तो ला
दो कुर्ता ही कोई भाड़े का।’’
बच्चे की सुन बात
कहा माता ने, ‘‘अरे सलोने!
कुशल करें भगवान,
लगें मत तुझको जादू-टोने।
जाड़े की तो बात
ठीक है, पर मैं तो डरती हूँ,
एक नाप में कभी
नहीं तुझको देखा करती हूँ।
कभी एक अंगुल भर
चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,
बड़ा किसी दिन हो
जाता है, और किसी दिन छोटा।
घटता-बढ़ता रोज
किसी दिन ऐसा भी करता है,
नहीं किसी की भी
आँखों को दिखलाई पड़ता है।
अब तू ही ये बता,
नाप तेरा किस रोज़ लिवाएँ,
सी दें एक
झिंगोला जो हर रोज बदन में आए?’’
पानी और धूप /
सुभद्राकुमारीचौहान
अभी अभी थी धूप,
बरसने
लगा कहाँ से यह
पानी
किसने फोड़ घड़े
बादल के
की है इतनी
शैतानी।
सूरज ने क्यों
बंद कर लिया
अपने घर का
दरवाजा़
उसकी माँ ने भी
क्या उसको
बुला लिया कहकर
आजा।
ज़ोर-ज़ोर से गरज
रहे हैं
बादल हैं किसके
काका
किसको डाँट रहे
हैं, किसने
कहना नहीं सुना
माँ का।
बिजली के आँगन
में अम्माँ
चलती है कितनी
तलवार
कैसी चमक रही है
फिर भी
क्यों खाली जाते
हैं वार।
क्या अब तक
तलवार चलाना
माँ वे सीख नहीं
पाए
इसीलिए क्या आज
सीखने
आसमान पर हैं आए।
एक बार भी माँ
यदि मुझको
बिजली के घर जाने
दो
उसके बच्चों को
तलवार
चलाना सिखला आने
दो।
खुश होकर तब
बिजली देगी
मुझे चमकती सी
तलवार
तब माँ कर न कोई
सकेगा
अपने ऊपर अत्याचार।
पुलिसमैन अपने
काका को
फिर न पकड़ने
आएँगे
देखेंगे तलवार
दूर से ही
वे सब डर जाएँगे।
अगर चाहती हो माँ
काका
जाएँ अब न
जेलखाना
तो फिर बिजली के
घर मुझको
तुम जल्दी से
पहुँचाना।
काका जेल न
जाएँगे अब
तूझेमँगादूँगी
तलवार
पर बिजली के घर
जाने का
अब मत करना कभी
विचार।
फिर क्या होगा
उसके बाद / बालकृष्ण राव
फिर क्या होगा
उसके बाद?
उत्सुक होकर शिशु
ने पूछा,
"माँ, क्या होगा उसके बाद?"
रवि से उज्जवल,
शशि से सुंदर,
नव-किसलय दल से
कोमलतर।
वधू तुम्हारी घर
आएगी उस
विवाह-उत्सव के
बाद।'
पलभर मुख पर
स्मित-रेखा,
खेल गई, फिर माँ ने देखा ।
उत्सुक हो कह उठा,
किन्तु वह
फिर क्या होगा
उसके बाद?'
फिर नभ के
नक्षत्र मनोहर
स्वर्ग-लोक से
उतर-उतर कर।
तेरे शिशु बनने
को मेरे
घर लाएँगे उसके
बाद।'
मेरे नए खिलौने
लेकर,
चले न जाएँ वे
अपने घर ।
चिन्तित होकर उठा,
किन्तु फिर,
पूछा शिशु ने
उसके बाद।'
अब माँ का जी उब
चुका था,
हर्ष-श्रान्ति
में डुब चुका था ।
बोली,
"फ़िर मैं बूढ़ी होकर,
मर जाऊँगी उसके
बाद।"
यह सुनकर भर आए
लोचन
किन्तु पोछकर
उन्हें उसी क्षण
सहज कुतूहल से
फिर शिशु ने
पूछा,
"माँ, क्या होगा उसके बाद?
कवि को बालक ने
सिखलाया
सुख-दुख है पलभर
की माया
है अनन्त का
तत्व-प्रश्न यह,
फिर क्या होगा
उसके बाद?
============================================
तूता का जूता /
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता
था
जब सब खाने पर
टूटते थे
वह अलग बैठा
टूँगता रहता था
जब सब निढाल हो
सो जाते थे
वह शून्य में
टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली
चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया
इब्नबतूता पहन के
जूता
निकल पड़े तूफान
में
थोड़ी हवा नाक
में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान
में
कभी नाक को,
कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल
पड़ा
उनके पैरों का
जूता
उड़ते उड़ते जूता
उनका
जा पहुँचा जापान
में
इब्नबतूता खड़े
रह गये
मोची की दुकान
में
भगवान के डाकिए /
रामधारी सिंह "दिनकर"
पक्षी और बादल,
ये भगवान के
डाकिए हैं
जो एक महादेश से
दूसरेंमहादेश को
जाते हैं।
हम तो समझ नहीं
पाते हैं
मगर उनकी लाई
चिट्ठियाँ
पेड़, पौधे, पानी और पहाड़
बाँचते हैं।
हम तो केवल यह
आँकते हैं
कि एक देश की
धरती
दूसरे देश को
सुगंध भेजती है।
और वह सौरभ हवा
में तैरते हुए
पक्षियों की
पाँखों पर तिरता है।
और एक देश का भाप
दूसरे देश में
पानी
बनकर गिरता है।
भाईचारा /
भवानीप्रसाद मिश्र
अक्कड़मक्कड़,
धूल में धक्कड़,
दोनों मूरख,
दोनों अक्खड़,
हाट से लौटे,
ठाट से लौटे,
एक साथ एक बाट से
लौटे।
बात बात में बात
ठन गई,
बांह उठी और मूछ
तन गई,
इसने उसकी गर्दन
भींची
उसने इसकी दाढ़ी
खींची।
अब वह जीता,
अब यह जीता
दोनों का बन चला
फजीता;
लोग तमाशाई जो
ठहरे -
सबके खिले हुए थे
चेहरे!
मगर एक कोई था
फक्कड़,
मन का
राजमकर्रा-कक्कड़;
बढ़ा भीड़ को
चीर-चार कर
बोला ‘ठहरो’ गला फाड़ कर।
अक्कड़मक्कड़ धुल
में धक्कड़
दोनों मूरख दोनों
अक्कड़,
गर्जन गूंजी,
रुकना पड़ा,
सही बात पर झुकना
पड़ा!
उसने कहा,
सही वाणी में
डूबो चुल्लू-भर
पानी में;
ताकत लड़ने में
मत खोओ
चलो भाई-चारे को
बोओ!
खाली सब मैदान
पड़ा है
आफत का शैतान
खड़ा है
ताकत ऐसे ही मत
खोओ;
चलो भाई-चारे को
बोओ!
सूनी मूर्खों ने
जब बानी,
दोनों जैसे
पानी-पानी;
लड़ना छोड़ा अलग
हट गए,
लोग शर्म से गले,
छंट गए।
सबको नाहक लड़ना
अखरा,
ताकत भूल गई सब
नखरा;
गले मिले तब
अक्कड़मक्कड़
ख़त्म हो गया धूल
में धक्कड़!
सूरज दादा / लाला
जगदलपुरी
सूरज दादा,
चमको तुम।
नया सवेरा लाते
रोज,
उजियाला फैलाते
रोज,
जहाँ कहीं भी
रहते लोग,
रखते सबको
तुम्हीं निरोग,
अच्छे लगते हमको
तुम।
सूरज दादा,
चमको तुम।
आसमान में रहते
हो,
सबकी बाँहें गहते
हो,
रोज समय पर आते
हो,
रोज समय पर जाते
हो,
रोज भगाते तम को
तुम।
सूरज दादा,
चमको तुम।
परहित में तप
करते हो,
नहीं किसी से
डरते हो,
तुम स्वभाव से
बड़े प्रखर,
कहती गरमी की
दोपहर,
नहला देते श्रम
को तुम।
सूरज दादा,
चमको तुम।
यह कदम्ब का पेड़
/ सुभद्राकुमारीचौहान
यह कदंब का पेड़
अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ
कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥
ले देतीं यदि
मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो
जाती यह कदंब की डाली॥
तुम्हें नहीं कुछ
कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से
अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥
वहीं बैठ फिर
बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह
वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥
बहुत बुलाने पर
भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥
तुम आँचल फैला कर
अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ
विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥
तुम्हें ध्यान
में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले
आँचल के नीचे छिप जाता॥
तुम घबरा कर आँख
खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना
राजा को गोदी में ही पातीं॥
इसी तरह कुछ खेला
करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़
अगर माँ होता यमुना तीरे॥
बहुत दिनों बाद
मुझे धूप ने बुलाया
ताते जल नहा पहन
श्वेत वसन आयी
खुले लान बैठ गयी
दमकती लुनायी
सूरज खरगोश धवल
गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद
मुझे धूप ने बुलाया।
नभ के
उद्यान-छत्र तले मेजः टीला,
पड़ा हरा फूल
कढ़ा मेजपोश पीला,
वृक्ष खुली
पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया।
बहुत दिनों बाद
मुझे धूप ने बुलाया।
पैरों में मखमल
की जूती-सी-क्यारी,
मेघ ऊन का गोला
बुनती सुकुमारी,
डोलती सलाई हिलता
जल लहराया।
बहुत दिनों बाद
मुझे धूप ने बुलाया।
बोली कुछ नहीं,
एक कुसीर् की खाली,
हाथ बढ़ा छज्जे
की साया सरकाली,
बाँह छुड़ा भागा,
गिर बर्फ हुई छाया।
बहुत दिनों बाद
मुझे धूप ने बुलाया।
नानी का गुलकंद
मुझे तुम्हारी
नानीजी ने,
डब्बा-भर गुलकंद
दिया।
और तुम्हारे
नानीजी ने
कविता दी औ’
छंद दिया।।
दोनों लेकर निकला
ही था,
बटमारों ने घेर
लिया।
छीनछान गुलकंद खा
गए
कविता सुन मुँह
फेर लिया।।
पर कुछ समझदार भी
थे,
जो कविता सुनकर
गले लगे।
अपना दे गुलकंद
उन्होंने
खाली डब्बा बंद
किया।।
अब नानी को लिख
देना,
उनका गुलकंद
सलामत है।
और हमें बतलाना
कविता
के बारे में क्या
मत है।।
किताबों में
बिल्ली ने बच्चे दिए हैं / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
किताबों मे
बिल्ली ने बच्चे दिए हैं,
ये बच्चे बड़े हो
के अफ़सर बनेंगे ।
दरोगा बनेंगे
किसी गाँव के ये,
किसी शहर के ये
कलक्टर बनेंगे ।
न चूहों की इनको
ज़रूरत रहेगी ,
बड़े होटलों के
मैनेजर बनेंगे ।
ये नेता बनेंगे औ’
भाषण करेंगे ,
किसी दिन विधायक,
मिनिस्टर बनेंगे ।
वकालत करेंगे
सताए हुओं की,
बनेंगे ये जज औ’
बैरिस्टर बनेंगे ।
दलिद्दर कटेंगे
हमारे - तुम्हारे,
किसी कम्पनी के
डिरेक्टर बनेंगे ।
खिलाऊँगा इनको
मैं दूध और मलाई
मेरे भाग्य के ये
रजिस्टर बनेंगे ।
मैं हर जगह वैसा
ही था / अशोक कुमार पाण्डेय
मैं बम्बई में था
तलवारों और
लाठियों से बचता-बचाता भागता-चीखता
जानवरों की तरह
पिटा और उन्हीं की तरह ट्रेन के डब्बों में लदा-फदा
सन साठ में
मद्रासी था, नब्बे में
मुसलमान
और उसके बाद से
बिहारी हुआ
मैं कश्मीर में
था
कोड़ों के निशान
लिए अपनी पीठ पर
बेघर, बेआसरा, मज़बूर, मज़लूम
सन तीस में
मुसलमान था
नब्बे में हिन्दू
हुआ
मैं दिल्ली में
था
भालों से बिंधा,
आग में भुना, अपने ही लहू से धोता हुआ अपना चेहरा
सैंतालीस में
मुसलमान था
चौरासी में सिख
हुआ
मैं भागलपुर में
था
मैं बड़ौदा में
था
मैं
नरोड़ा-पाटिया में था
मैं फलस्तीन में
था अब तक हूँ वहीं अपनी कब्र में साँसें गिनता
मैं ग्वाटेमाला
में हूँ
मैं ईराक में हूँ
पाकिस्तान पहुँचा
तो हिन्दू हुआ
जगहें बदलती हैं
वज़ूहात बदल जाते
हैं
और मज़हब भी,
मैं वही का वही!
0 comments:
Post a Comment
Click to see the code!
To insert emoticon you must added at least one space before the code.