प्रतिरोध के सिनेमा के तीसरे फ़िल्म फ़ेस्टिवल का आग़ाज़ आज प्रसिद्ध इतिहासविद् व फ़िल्मकार उमा चक्रवर्ती के बीज वक्तव्य से हुआ। उद्घाटन कार्यक्रम में सर्वप्रथम 'हमारी विरासत' इस पोस्टर मालिका तथा चित्तोप्रसाद के चित्रों की प्रदर्शनी के लोकार्पण से हुआ। अपने बीज वक्त्व में उमा चक्रवर्ती ने सांस्कृतिक फाँसीवाद के बढ़ते क़दमों को जनतंत्र के लिए ख़तरा बताया। उन्होंने कहा " शिक्षा, इतिहास तथा सामाजिक मुद्दों में यह फाँसीवाद स्वायत्ता तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छीन लेता है। एम. एक. हुसैन के देश छोड़ने से लेकर एम.एम.कलबुर्गी की हत्या तक आते आते हम सोचने पर मजबूर हैं कि क्योंकि कलाकार, लेखक और तार्किक विचारकों की आवाज़ को दबाने के लिए निरंतर हमले किए जा रहे हैं। अगर समाज इन फांसीवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ खड़ा न हुआ तो उसे जनतंत्र के मौत की क़ीमत चुकानी पड़ेगी।" उन्होंने साफ़गोई से कहा कि जब तक नागरिकों में जातिवाद, सांस्कृतिक असहिस्णुता व पितृसत्ता के बीज मौजूद रहेंगे तब तक सांस्कृतिक फाँसीवाद का प्रतिरोध करना संभव नहीं होगा।
विशिष्ट अतिथि के रूप में समाजशास्त्री नरेश भार्गव ने कहा कि जब फांसीवादी दौर में लोकविधायों पर नकेलें कंसती जा रहीं हैं, तब सिनेमा जैसा लोकप्रिय माध्यम जनहित के मुद्दों को कलात्मक तरीके से रखते हुए जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतीक बन जाता है। उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी के संयोजक शैलेन्द्र सिंह भाटी ने प्रतिरोध का सिनेमा के तहत फ़िल्म सोसाइटी की तीन साल की यात्रा का जायज़ा लेते हुए कहा कि जन सहयोग से हम जनसमुदाय सिनेमा गाँव, क़स्बों, मोहल्लों, स्कूल कॉलेजों तक पहुँचाने की पहल कर पाएँ हैं। इस प्रयास को सभी के सहयोग से और मज़बूत करना संभव होगा। प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य नकुल साहनी ने फ़िल्म जगत की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हुए इस विधा से जुड़े छात्रों के मुद्दों को सामने रखा। एफ़टीआईआई के विद्यार्थीयों के संघर्ष को 100दिनों से उपर हो चुके हैं। और इस संघर्ष को सरकार बहुत ही एकांगी रूप से पेश कर रही है। अभिव्यक्ति की स्वत्रंता के साथ-साथ निजीकरण के ख़िलाफ़ ये विद्यार्थी खड़े हैं ।
भारतीय सिनेमा की परंपरा में अपनी ख़ास जगह रखने वाली सईद मिर्ज़ा निर्देशित फ़िल्म 'मोहन जोशी हाज़िर हों' दिखाई गई। फ़ेस्टिवल में इस फ़िल्म को दिखाने का एक ख़ास प्रयोजन यह भी रहा कि फ़िल्म में मुख्य किरदार हिन्दी के विख्यात लेखक भीष्म साहनी का है, जिनकी इस वर्ष जन्मशती है। अपने ग़ैर नाटकीय अभिनय से उन्होंने एक आम नागरिक के कोर्ट कचहरी, बिल्डर्स और पुरी न्याययंत्रणा के ख़िलाफ़ संघर्षपूर्ण कहानी को जीवंत तरीके से पर्दे पर उभारा है। फ़ेस्टिवल में दिखाई गई अन्य फिल्मों में उमा चक्रवर्ती की फ़िल्म 'फ्रेगमेंन्ट्स ऑफ़ पास्ट' भी शामिल थी। जिसने व्यक्तिगत इतिहास और सामाजिक इतिहास के ध्रुवों को पाटते हुए मैथिली शिवरामन के माध्यम से उनके पुरे दौर उनके आंदोलनों को पर्दे पर जीवंत किया।
कानपुर के बिजली संकट से उत्पन्न बिजलीचोरी की यंत्रणा 'लोहासिंह' के माध्यम से सरकार की बिजली आपूर्ति पर भाष्य करती फ़िल्म फ़हाद मुस्तफ़ा व दिपा कक्कर द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'कटियाबाज' का प्रदर्शन किया गया। प्रदर्शन के बाद हुई चर्चा के दौरान विद्युत विभाग के रिटायर्ड अंधिकारी बोलिया जी ने राजस्थान सरकार के विद्युत विभाग की पोल खोलते हुए आरटीआई के द्वारा मिली महत्वपूर्ण जानकारियाँ दर्शकों के साथ साझा की।
फ़ेस्टिवल में 'आग़ाज़ ग्रुप' के साथियों नें 'इस्मत आपा के नाम' से एक सशक्त नाटक पेश किया। उत्साह से भरे आग़ाज़ के साथियों नें इस्मत चुगताई की चार कहानियों का अनोखे अंदाज में मंचन किया।
फ़ेस्टिवल के आज पहले दिन का समापन कोर्ट फ़िल्म के द्वारा किया गया। कोर्ट फ़िल्म के निर्देशक चैतन्य ताम्हाणें हैं। यह फ़िल्म भारत की ओर से वर्ष 2014 ऑस्कर अवार्ड के लिए नामांकित की गई है।
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सांस्कृतिक फासीवाद के खिलाफ एक होने के सूत्र के साथ हुआ उदयपुर फिल्मोत्सव का समापन
27 सितंबर 2015, उदयपुर
तीसरे उदयपुर फिल्म फेस्टिवल का आखिरी दिन सांप्रदायिकता, श्रमिक आंदोलनों और सांस्कृतिक फासीवाद से जुड़ी फिल्मों और चर्चाओ के नाम रहा। जिसमे कुमार गौरव की जमशेदपुर दंगो पर आधारित फिल्म ‘कर्फ़्यू’ और नकुल सिंह साहनी निर्देशित ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ प्रमुख रही। जहां नकुल सिंह साहनी की फिल्म ‘मुजारनगर बाकी है’ में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नवंबर 2013 में हुए सांप्रदायिक दंगे के सभी पक्षों, राजनीतिक दलों की भूमिकाओं और प्रचलित कारणों की समीक्षा करते हुए इसका विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है कि आखिर एक दंगा क्यों होता है, उसके पीछे किसका स्वार्थ होता है और उससे असल में किसका नुकसान होता है।कुमारगौरव की फ़िल्म एक दंगों के मध्य एक उसका सीधा चित्रण करते हुए राज्य की भूमिका और प्रशासन की पक्षधरता हो दिखाने का प्रयास करती है,फिल्मों देखने के बाद दर्शकों ने चर्चा मे हिस्सा लिया और फिल्मों को आज के समय और समाज से जोड़ते हुये निर्देशकों ने दर्शको के सवालों के जवाब दिये।
आज की प्रमुख गतिविधियों मे सांस्कृतिक फासीवाद और आज की चुनौतियों को लेकर एक परिचर्चा आयोजित की गयी जिसमें नकुल सिंह साहनी, भँवर मेघवंशी, इफ़्फ़त फातिमा, कुमार गौरव और हिमांशु पंडया ने हिस्सा लिया। वक्ताओं ने कहा कि फासीवाद के विभिन्न आयाम होते हैं, उसे सिर्फ सांप्रदायिकता तक सीमित करके देखना उसका सरलीकरण होगा। इस चर्चा में दर्शकों ने गर्मजोशी से हिस्सा लिया और और देश और समाज मे महिलाओ को लेकर होने वाली हिंसा भेदभाव, दलितो और दूसरी अन्य जतियों पर होने वाली सामंती और जातिगत हिंसा के खिलाफ एकता से संघर्ष को रेखांकित किया । साथ ही, परिवार मे लड़कियों को लेकर होने वाले भेदभाव को समाप्त करने पर बल देने की बात कही गयी। इस चर्चा मे महिलाओ के प्रति असंवेदनशील रवैये और उनके चयन की स्वतन्त्रता के हनन की की बात हुई और मुख्य रूप से यह बात भी निकल कर सामने आई की यह फासीवाद की खासियत हैं की यह व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता हैं तथा सरकार के काम काज पर सवाल उठाने की मनाही होती हैं । तथा एक सामंतवादी सोच महिलाओ, दलितो के खिलाफ नजर आती है। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के बहुत से देशों मे भी ये बात नजर आती हैं। इसके तहत जो राजनीतिक संस्थाएं हैं चाहे वो किसी भी रूप मे हो अगर वो सत्ता पर काबिज होने के बाद अपनी मूल सोच को छोड़कर जो कॉर्पोरेट जगत के सहारे ही चलती हैं और उनके लाभ हानी को लेकर ज्यादा गंभीर होती हैं ना की जनता के।
उदयपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक शैलेंद्र प्रताप सिंह भाटी ने उदयपुर फिल्म सोसाइटी के आजतक के सफर पर अपनी बात रखी और कहा की पिछले तीन सालों मे हमने उदयपुर के लोगो के सहयोग से सफलता के नए मुकाम तय किए हैं।
फिल्मोत्सव के आखिरी दिन राहुल रॉय की गुड़गाँव के मानेसर स्थित मारुति प्लांट मे श्रमिक के आंदोलन पर आधारित फिल्म ‘फ़ैक्टरी’ दिखाई गयी और फिल्मोत्सव की आखिरी फिल्म इफ़्फ़त फातिमा की ‘खून दियो बराव’ रही। ‘फैक्ट्री’ मारुति उद्योग की लंबी हड़ताल और उसके आगे के घटनाक्रम का विश्लेषण करते हुए , वर्तमान श्रमक्षेत्र में श्रमिकों के हालातों और उन परिस्थितियों का विश्लेषण करती है जो श्रमिक असंतोष को जन्म देते हैं। इफ़्फ़त फातिमा की फिल्म में कश्मीर के हालातों को सामने रखा गया। इफ़्फ़त फातिमा ने यह फिल्म दस साल तक लगातार शूटिंग करके बनाई है, उन्होने दर्शकों से बातचीत के दौरान बताया।
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