Thursday 26 March 2015

गोरखपुर
पहला दिन 
‘‘अंबानी, वेदांता, जिंदल, टाटा जैसी कंपनियां इस देश को चला रही हैं। पेट्रोलियम, गैस, कोयला से लेकर शिक्षा, टूरिज्म और सूचना के क्षेत्र तक उनके कब्जे में हैं। वे उसे नियंत्रित करते हैं। पूंजीवाद के साथ जाति व्यवस्था का भी इस देश में गहरा गठजोड़ है। जाति व्यवस्था जिसने हमारे समाज को विभाजित कर रखा है। उसके खिलाफ भी हमें प्रतिरोध करना होगा।’’ दसवें गोरखपुर फिल्मोत्सव की मुख्य अतिथि प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने आज यह कहा।

फिल्मोत्सव की विचारोत्तेजक शुरुआत करते हुए अरुंधति राय ने पूंजीवाद द्वारा राजनीति, जनांदोलन और कला-संस्कृति आदि के नियंत्रित किए जाने के इतिहास को सामने रखते हुए कहा कि प्रतिरोध की ताकतों को बार-बार आत्मनिरीक्षण भी करते रहना होगा। आज कारपोरेट जिस तरह से साहित्य और कला के क्षेत्र को नियंत्रित करने की चेष्टाएं कर रही हैं, वह नई परिघटना नहीं है। फोर्ड और रॉकफेलर जैसे फाउंडेशन यह काम बहुत पहले से कर रहे हैं। कारपोरेट कंपनियों द्वारा प्रायोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में रुश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहुत उत्सव होता है, लेकिन अपने जीवन के बुनियादी अधिकारों के लिए लड़ रहे छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवाल पर चुप्पी बनी रहती है। ये कारपोरेट ताकतें विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों, बुद्धिजीवियों और जनांदोलनों को इस तरह से अनुकूलित कर रही हैं कि प्रतिरोध का पहलू उनके भीतर से गायत होता जा रहा है। इसी संदर्भ में एनजीओ के इस्तेमाल का जिक्र करते हुए उन्हांेने कहा कि गांधी जी के जरिए पूंजीवाद ने इसी तरह का काम किया। उन्होंने औरतों, दलितों, गरीबों और जाति व्यवस्था पर गांधी के नजरिए पर भी सवाल उठाया, जिस पर दर्शकों ने अरुधंति राय से जोरदार बहस की, जिसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि इस संबंध में उनके विचार खुद गांधी जी के लेखन के आधार पर ही निर्मित हुए हैं। अरुंधति ने एक सवाल के जवाब में यह कहा कि आज इस देश में हजारों विद्रोह हो रहे हैं। देश के कई हिस्सों में आदिवासियों और किसानों ने अपने प्रतिरोध के जरिए जमीन के अधिग्रहण को रोका है। प्रतिरोधों की जो बहुलता है, वह जरूरी है। 

उद्घाटन सत्र मंे प्रसिद्ध फिल्मकार संजय काक ने कहा कि डाक्यूमेंटरी फिल्मों के लिए यह बेहतर समय है और इस बेहतर समय के निर्माण में गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल की भी अहम भूमिका है। इसने साबित किया है कि इस तरह की फिल्मों के लिए एक पब्लिक स्पेस है, जो पब्लिक के ही चंदे से चल सकता है। इसने वैकल्पिक सिनेमा बनाने वाले फिल्मकारों के उत्साह को बढ़ाया है।

उद्घाटन सत्र के अध्यक्ष जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव प्रणय कृष्ण ने कहा कि सम्मान के साथ जिंदा रहने का अधिकार भी अभिव्यक्ति के अधिकार का मसला है। बहुत सारी भावनाएं, मूल्य उसी तरह विस्थापित और निर्वासित हो रहे हैं, जिस तरह किसान अपने खेत और नौजवान अपने सपनों व रोजगार से विस्थापित या निर्वासित किए जा रहे हैं। जिस जमीन से हमें बेदखल किया जा रहा है, उसे बचाने के साथ-साथ नई जमीन बनाने की लड़ाई भी हमारे सामने है। कोई बना-बनाया रास्ता नहीं है, चलते-चलते ही रास्ते राह मिलती है। प्रणय कृष्ण ने कहा कि विस्थापन और निर्वासन पंूजीवाद और जाति-व्यवस्था दोनों की ही देन है। सारे असुरक्षितों और निर्वासितों को कोई जमीन मिले, इससे बेहतर कोई दूसरी बात नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद और जाति व्यवस्था की उम्र के हिसाब से प्रतिरोध का सिनेमा की उम्र बहुत कम है। फिर भी इन दस सालों के अनुभव ने हमें यह बताया है कि फिल्म हमारे जीवन और संघर्षों का सिर्फ आईना ही नहीं हो सकती, बल्कि उन संघर्षों को बनाने वाली ताकत भी हो सकती है।

प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने कहा कि कारपोरेट मीडिया और उसका सूचनातंत्र जिन बहसों और सच्चाइयों को दबा रहा है, दस साल में प्रतिरोध का सिनेमा उन्हें सामने लाने का माध्यम बन गया है। इसके पहले दसवें गोरखपुर फिल्मोत्सव के स्वागत समिति के अध्यक्ष मदन मोहन ने फिल्मोत्सव के अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए कहा कि देश में अंधेरे से निकल के जो नकारात्मक ताकतें आ रही हैं और सबको अंधेरे में ले जाना चाहती हैं, उनके प्रतिरोध के सिलसिले की ही एक कड़ी यह आयोजन है। उद्घाटन सत्र का संचालन जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य के.के. पांडेय ने किया। इसी सत्र में फिल्मोत्सव की स्मारिका का भी लोकार्पण किया गया। 

कहां से आते हैं सस्ते मजदूर इस राज का पर्दाफाश किया ‘श्रमजीवी एक्सप्रेेस’ ने 
फिल्मकार अपल, आशीष और तरुण की हिंदी, अंग्रेजी सब टाइटल्स वाली 70 मिनट की दस्तावेजी फिल्म ‘श्रमजीवी एक्सप्रेस’ के निर्देशक तरुण भारतीय हैं। यह फिल्म सस्ते मजदूर और सस्ते उत्पादन के पीछे की सच्चाइयों को दर्शाती है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरराष्ट्रीय पूंजी को भारत आमंत्रित करते हुए इसी सस्ते श्रम की ओर संकेत करते हुए कहा था कि आइये, भारत में हम आपको कम खर्चे में उत्पादन की संभावनाएं मुहैया कराएंगे। राजधानी दिल्ली के सीमांत पर है गांव कापसहेड़ा । हर सुबह लाखों की तादाद में मजदूर हरियाणा में लगी फैक्ट्रियों में विश्व प्रसिद्ध ब्रांडों के कपड़े, कारों के पार्ट आदि नई भारतीय अर्थव्यवस्था की जरूरी वस्तुएँ का सस्ता उत्पादन करने तथा काल सेन्टरों में काम करने निकल पड़ते हैं। फिल्म इन्हीं श्रमजीवियों की जिंदगी पर निगाह डालती है और सस्ते उत्पादन के राज़ से दर्शकों को रूबरू कराती है। फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों ने निर्देशक तरुण भारतीय से भारत में श्रमिकांे की स्थिति और नई अर्थनीति को लेकर बातचीत भी की। 

दलितों की निगाह से भारतीय राष्ट्रवाद पर सवाल उठाया ‘फंड्री’ ने 

‘फंड्री’ महाराष्ट्र के एक दलित समुदाय ‘कैकाडी’ द्वारा बोले जाने वाली बोली का शब्द है जिसका अर्थ सूअर होता है। फिल्म एक दलित लड़के जामवंत उर्फ जब्या (सोमनाथ अवघडे) की कहानी है जो किशोरवय का है और अपनी कक्षा में पढ़ने वाली एक उच्च जाति की लड़की शालू (राजेश्वरी खरात) से प्यार कर बैठा है। लेकिन यह प्रेम कहानी वाली फिल्म नहीं है, बल्कि इस फिल्म के गहरे सामाजिक-राजनीतिक निहितार्थ हैं। पृष्ठभूमि में दिख रही स्कूल की दीवारों पर बनी अम्बेडकर और सावित्रीबाई फुले की तस्वीरें हो या कक्षा में अंतिम पंक्ति में बैठने को मजबूर दलित बच्चे, अपने घर की दीवार पर ‘शुभ विवाह’ लिख रहा जब्या का परिवार हो या फिर स्कूल में डफली बजा रहा जब्या या फिर एक अन्य दृश्य जहाँ जब्या का परिवार सूअर उठाकर ले जाता रहता है, तब भी पृष्ठभूमि में दीवार पर दलित आन्दोलनों से जुड़े सभी अगुआ नेताओं की तस्वीरें नजर आती हैं। 

इस फिल्म में एक अविस्मरणीय दृश्य है। जब्या स्कूल जाने की जगह गाँव के सवर्णों के आदेश पर अपने परिवार के साथ सूअर पकड़ रहा होता है। तभी अचानक स्कूल में राष्ट्र-गान बजना शुरू हो जाता है। राष्ट्र-गान सुनकर पहले जब्या स्थिर खड़ा हो जाता है और फिर उसका पूरा परिवार। इस दृश्य के गहरे राजनीतिक अर्थ हैं कि कैसे हमारा शासक वर्ग राष्ट्रीय प्रतीकों और एक कल्पित राष्ट्र के सिद्धांत के बल पर देश के वंचित तबकों को बेवकूफ बनाकर रखे हुए है।

फंड्री सच्चे अर्थों में एक नव-यथार्थवादी फिल्म है जहां एक दलित फिल्मकार नागराज मंजुले ने बिना भव्य-नकली सेटों की मदद के असली लोकेशन पर फिल्म शूट की है। फिल्म में जब्या के बाप का किरदार कर रहे किशोर कदम को छोड़कर लगभग सभी किरदार नए हैं। सोमनाथ कोई मंजा हुआ अभिनेता नहीं है बल्कि महाराष्ट्र के एक गांव का दलित लड़का है जो अभी कक्षा 9 में पढ़़ रहा है वहीं उसके दोस्त पिरया का किरदार कर रहा सूरज पवार सातवीं कक्षा का छात्र है। फिल्म मराठी में है लेकिन कई जगह दलित कैकाडी समुदाय की मराठी बोली का भी प्रयोग किया है। अभी तक मराठी फिल्म निर्माण में सवर्णों का ही दबदबा रहा है. कुछ लोग व्यंग्य से कह रहे हैं कि फंड्री और इसकी भाषा ने मराठी फिल्मों की ‘शुद्धता’ को ‘अपवित्र’ कर दिया है। 

फिल्म में सोमनाथ सहित दूसरे सभी किरदारों का अभिनय बहुत ही स्वाभाविक रहा है। फिल्म में जब्या और उसका दोस्त पिरया अभिनय करते नहीं बल्कि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी जीते दिखते हैं। फिल्म में सोमनाथ ने डफली बजायी है और उसे वाकई डफली बजाना आता भी है। दरअसल फिल्मकार की मुलाकात सोमनाथ से भी तब ही हुई थी जब वह अपने गाँव के एक कार्यक्रम में डफली बजा रहा था। फंड्री में कैमरा और साउंड का काम भी बेहतरीन रहा है। नागराज मंजुले का कहना कि जब तक अलग-अलग समुदाय, खासकर वंचित समुदाय के लोगों को फिल्म इंडस्ट्री में जगह नहीं मिलेगी तब तक हमारा सिनेमा हमारे समाज का सही मायने में प्रतिनिधित्व नहीं कर पाएगा। पिछले कुछ सालों में आए हिंदी के कथित प्रयोगधर्मी फिल्में फंड्री के आगे पानी भरते दिखती हैं। फंड्री सच्चे अर्थों में लोगों का सिनेमा है जिसकी हमारे समय में बहुत जरूरत है।दसवें गोरखपुर फिल्मोत्सव के दौरान प्रेक्षागृह की साजो-सज्जा आंनद रूप ने की है। सभागार के बाहर गोरखपुर फिल्म सोसाइटी और गार्गी प्रकाशन की ओर से किताबों का स्टाल भी लगाया गया है। 

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दूसरा दिन 
किस्से-कहानियों की दुनिया में बच्चे
10 वें गोरखपुर फिल्मोत्सव के दूसरे दिन की शुरुआत बच्चों के सत्र से हुई। पहले प्रोफेसर बीरेन दास शर्मा ने दृश्यों और ध्वनियों के जरिए बाइस्कोप से लेकर सिनेमा के विकास की कहानी से बच्चों को अवगत कराया। इस प्रस्तुति ने बड़ों को बचपन के जमाने की याद दिला दी, जब बाइस्कोप वाले गली-मुहल्लों में आते थे और उसे देखने के लिए बच्चों की भीड़ लग जाती थी।

बाइस्कोप और सिनेमा से भी बड़ा जादू किस्सागोई का है, जो इनके आविष्कार के पहले से मानव समाज मेें मौजूद रहा है। किस्सागोई कितना सहज तरीका है बच्चों से गुफ़्तगू करने का, इसका अहसास दिलाया संजय मट्टू की किस्सागोई ने। भाग गई पूड़ी कहानी में पूड़ी कड़ाही से भाग निकलती है। किसान और उसकी पत्नी, छुटदुम्मी खरगोश और मुटदुम्मी लोमड़ी उसका पीछा करते हैं, पर वह किसी के पकड़ में नहीं आती। लेकिन आखिरी में वह बूढ़ी और कमजोर कुतिया बीबी लपलप की पकड़ में आ जाती है। बीबी लपलप के मुंह से निकलती है तो आधी रह जाती है। जिस नाटकीयता, बातचीत और कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करते हुए संजय मट्टू ने बच्चों को कहानी सुनाई, उससे उन्हें खूब मजा आया। ज्यादातर बच्चों ने बताया कि घमंड की वजह से ही पूड़ी पकड़ी गई। इसी तरह राक्षस की कहानी से भी उन्हांने मनोरंजन और शिक्षा दोनों ग्रहण की। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि बच्चे सिर्फ कहानी के श्रोता नहीं थे, बल्कि वे कहानियों की नाटकीय प्रस्तुति में शामिल भी थे।

सेंसरशिप के खिलाफ मुखर हुए फिल्मकार

आज फिल्मोत्सव में ‘मीडिया और सिनेमा में लोकतंत्र और सेंसरशिप’ विषय पर एक विचारोत्तेजक परिचर्चा हुई जिसमें फिल्मकार संजय काक, अजय टीजी, विक्रमजित गुप्ता, नकुल साहनी, पवन श्रीवास्तव, फिल्म संपादक तरुण भारतीय और मीडियाकर्मी पंकज श्रीवास्तव ने कारपोरेट-सांप्रदायिक शासकवर्ग के हित में मीडिया और सिनेमा पर लागू घोषित-अघोषित सेंसरशिप के बारे में विस्तार से चर्चा की और इस दौर को स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लिहाज से चुनौतीपूर्ण और खतरनाक समय के तौर पर चिह्नित किया। संचालन प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने किया। परिचर्चा में फिल्मकार संजय काक ने कहा कि आज तक किसी सरकार या पुलिस ने किसी फिल्मकार से यह नहीं कहा कि फिल्म दिखाना आपका हक है, हम इसे दिखाने में आपकी मदद करेंगे। बल्कि होता यह है कि कोई एक समूह किसी फिल्म को अपनी भावनाओं के खिलाफ बता देता है और पुलिस उस पर रोक लगा देती है। सेंसरशिप के खिलाफ अभियान चलाए जाने की जरूरत पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि यह सिर्फ फिल्म बनाने या दिखाने वाला का ही मुहिम नहीं होगा, बल्कि इसके लिए वैसे दर्शक भी चाहिए जो यह कहें कि फिल्म देखना उनका हक है, जो किसी को यह हक न दें कि वह बताए कि कौन फिल्म वे देखें या कौन न देखें। फिल्मकार अजय टीजी ने कहा कि जिन लोगों से वे जुड़े हुए, जिन समस्याओं के बीच है, उन पर ही फिल्में उन्होंने बनाई है। फिल्म ही उनका हथियार है। उन्होंने कहा कि सिर्फ सरकार ही नहीं, बल्कि बजरंग दल और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों की हिंसा का सामना करते हुए उन्होंने फिल्में बनाई हैं। उन्होंने बताया कि किस तरह बस्तर में ईसाई आदिवासियों के खिलाफ अन्य आदिवासियों को संगठित करके हिंदुत्ववादी शक्तियां हिंसक अभियान चला रही हैं। सलवाजुडूम के फेल हो जाने के बाद वे नए सिरे से आदिवासी देवी-देवताओं का हिंदूकरण कर रही हैं, घरवापसी का अभियान चला रही हैं। ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ फिल्म बनाने के दौरान की कठिनाइयों की चर्चा करते हुए फिल्मकार नकुल साहनी ने कहा कि भाजपा और उसके संगठनों ने जिस तरह का माहौल बनाया है, उसमें कोई फिल्म बना पाना भी एक कठिन चुनौती है। मोदी का प्रभाव बनारस में नहीं, बल्कि मुजफ्फरनगर और शामली में चुनाव के दौरान दिख रहा था। जहां जनसंहार के आरोपी भाजपा विधायक संगीत सोम ने उन्हें कैमरा बंद करने की धमकी दी। उन्होंने कहा कि यह भी एक सेंसरशिप है, जिसके कारण सच को डाक्यूमेंटेड करने के लिए किसी फिल्मकार को अपनी पहचान छिपानी पड़ती है। विक्रमजित गुप्ता ने कहा कि उन्होंने एक फिल्म बनाई थी- लादेन इज नॉट माई फ्रेंड बनाई, जिसे सेंसर प्रमाणपत्र नहीं दिया गया। किसी खास समुदाय को आतंकवादी करार देने की जो रणनीति है, फिल्म उसके विरोध में थी, इस कारण भी भाजपा की सरकार के दौरान उसे प्रमाणपत्र नहीं दिया गया। तरुण भारतीय ने कहा कि बैन करने की हर तरह की संस्कृति का विरोध होना चाहिए। बैन करने के बजाए आलोचना की संस्कृति को विकसित करना होगा। फिल्मकार पवन कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि स्वतंत्रता बनाए रखनी है तो चुनौतियों का सामना करना ही होगा। जहां-जहां दर्शक मिलें, वहां जाना होगा। मीडियाकर्मी पंकज श्रीवास्तव ने कहा कि सूचना क्रांति के नाम पर सूचनाआंे को पहुंचाने के बजाए सूचनाएं छिपाने का काम हो रहा है। यहां जिस तरह प्रसारण माध्यमों पर एकाध घरानों का ही कब्जा है, वैसा दुनिया के किसी देश में नहीं है। समाचार उद्योग सिर्फ मुनाफ का व्यवसाय बनकर रह गया है। मीडिया सिर्फ कारपोरेट हित में काम कर रही है। उनके हित में ही वे हर जनांदोलन को विकास विरोधी बताती हैं और बड़े-बड़े प्रदर्शनों को खबर बनने ही नहीं देतीं। 

प्रगतिशील रचनाओं की शानदार विरासत से रूबरू हुए दर्शक
समन हबीब और संजय मट्टू की प्रस्तुति ‘आसमान हिलता है जब गाते हैं हम’ के जरिए प्रगतिशील-लोकतांत्रिक रचनाओं की साझी विरासत बड़े ही प्रभावशाली तरीके से सामने आई। इस प्रस्तुति ने न सिर्फ प्रगतिशील रचनाकारों की रचनात्मक प्रतिभा, उनके सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों से बावस्ता कराया, बल्कि इसका भी अहसास कराया कि उस दौर में सवाल उठाए गए थे, वे आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं। भीषण लूट-झूठ के वर्तमान दौर में अपनी प्रगतिशील-जनवादी परंपरा को याद करना सचमुच अपने समय की चुनौतियों से लड़ने में मददगार हो सकता है, दर्शकों ने इसे महसूस किया। संगीत संकलन अमित मिश्र ने किया था। 
नया पता: विस्थापित होते लोगों की कहानी 
आज फिल्मोत्सव में तीन फिल्में दिखाई गईं। भोजपुरी हिंदी में बनाई गई फिल्मकार पवन कुमार श्रीवास्तव की फिल्म ‘नया पता’ भोजपुरी सिनेमा में नयेपन की दस्तक की तरह लगी। नया पता लगातार विस्थापित होते लोगों की कहानी है जो जहां के हैं न तो वहां के हो पाते हैं और न ही उखड़कर पहुँची हुई नई जगह के। हाल की भोजपुरी फिल्मों की तुलना में यह फ़िल्म भोजपुरी माटी की गंध और ध्वनियों को भी सही तरीके से पकड़ने में कामयाब हुई है। 

जन स्वास्थ्य के मुद्दे पर विकल्प दिखाया अजय टीजी की फिल्म ‘पहली आवाज’ ने
अजय टी जी की दस्तावेजी फिल्म ‘पहली आवाज’ को देखना और उसके निष्कर्षों को समझना स्वास्थ में ठोस विकल्प का रास्ता सुझाता है। भिलाई में रहने वाले अजय पूरावक्ती दस्तावेजी फिल्मकार हैं और कामगारों के सवालों को वे लगातार अपनी फिल्मों का विषय बनाते आये हैं। पहली आवाज या फर्स्ट क्राई छतीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नायक शहीद शंकर गुहा नियोगी द्वारा शुरू किए गए शहीद अस्पताल की कहानी है। इसकी कहानी ने दर्शकों को पूंजीवादी समाज में स्वास्थ्य के ढांचे के बरक्स समतामूलक समाज में होने वाली स्वास्थ संबंधी चिंताओं को सहज समझा दिया। छतीसगढ़ के खनन इलाके दल्ली राजहरा में शुरू हुआ शहीद अस्पताल अपने लोगों को बचाने की जरूरत से शुरू हुआ। इसलिए इसके निर्माण में भी इससे लाभान्वित होने वाले लोगों का श्रम लगा था। फिल्म में अस्पताल को देखते हुए बड़े शहरों में निर्मित हो रहे फाइव स्टार अस्पतालों से बड़ा फर्क नजर आया। यह फर्क दल्ली राजहरा और बड़े फाइव स्टार की चमक और उसके अर्थ का था। शहीद अस्पताल में चमकते प्राइवेट वार्ड नहीं हैं, न ही उसकी बिल्डिंग का बाहरी हिस्सा दमकता है। लेकिन यहां भी इलाज के लिए जरूरी उपकरण और उससे भी ज्यादा संत जैसे डॉक्टरों और सहायकों की एक बड़ी फौज है। सबसे खास बात जो है वो यह कि यहां हर गरीब का बिना किसी भेदभाव के इलाज हो सकता है। यह शायद देश का एकमात्र अस्पताल है जिसमे काम करने वाले सहायकों और डाक्टरों की तनख्वाह में मामूली अंतर है। दरअसल यह अस्पताल अपने मरीज की लूट पर नहीं बल्कि उसका इलाज कर उसे स्वस्थ कर घर भेजने के सिद्धांत पर निर्मित हुआ है। फिल्म देखते हुए दल्ली राजहरा के इस अनोखे अस्पताल की दुश्वारियों का भी पता चलता है। लेकिन फिर भी हर चीज को मुनाफे में देखने के आदी लोगों के सामने यह एक नसीहत के रूप में सामने खड़ा दिखाई देता है।

फिल्मकार अजय टीजी जनता का सिनेमा बनाते रहे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार के एक दमनकारी कानून के तहत माओवादी करार कर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया था, जिसके खिलाफ पूरे देश के बुद्धिजीवियों और साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों ने प्रतिवाद किया था। फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों ने अजय टीजी से बातचीत भी की।  

अचल: गलियों के बाशिंदों की जिंदगी और उनके सपने 
निर्देशक बिक्रमजित गुप्ता की फिल्म ‘अचल’ फिल्मोत्सव के दूसरे दिन दिखाई गई आखिरी फिल्म थी। यह कोलकाता की गलियों के बाशिंदे कृष्णा बैरागी की कहानी है। उनके साथ के विलक्षण लोगों की कहानी। मुखौटे बेचने वाले रासू जैसों की कहानी। यह फिल्म इन्हीं लोगों की अभिलाषाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। कृष्णा की एक खास आदत है कहीं भी बुत बन जाने की। इस नाते उन्हें अपनी रेस्टोरेन्ट की नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता है। कलकतते की गलियों में घूमते हुए कृष्णा एक दुकान में सजे बुत से इश्क कर बैठते हैं। इस नाते वे रासू का मजाक भी सहते हैं कि वे पगले हैं। उन्हें लगता है कि वह बुत भी उनसे इश्क में है। कृष्णा का सपना चूर-चूर हो जाता है जब एक दिन वे अपने माशूक बुत की जगह कोई सिर-विहीन बुत देखते हैं। रासू के लिए यह मज़्ााक है पर कृष्णा को भारी झटका लगता है। वे कृष्णा के बुत की तलाश में पूरा कोलकाता छान मारते हैं पर पूरा शहर सिर-विहीन बुतों से भरा पड़ा है। दर्शकों ने फिल्म के निर्देशक से बातचीत भी की। 

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तीसरा दिन
10 वें गोरखपुर फिल्मोत्सव के आखिरी दिन आज पांच फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। इन फिल्मों ने जहां एक ओर भारत में स्वास्थ्य योजनाओं में मौजूद लापरवाही के यथार्थ को दर्शाया, वहीं राजनीति, सांप्रदायिकता और नवउदारवादी गठजोड़ से निर्मित सामाजिक हिंसा के प्रति दर्शकों को जागरूक किया। इनमें सांप्रदायिक दंगों और विध्वंस के माहौल में भी मिलीजुली संस्कृति और प्रेम की जद्दोहद दिखी, वहीं मध्यवर्गीय घरों में मौजूद वर्गीय भेदभाव का सच भी सामने आया। आज फिल्मोत्सव मे दर्शकों को पड़ोसी नेपाल के सिनेमा के बारे में जानने का मौका मिला। इंकलाबी कवि सरोज दत्त पर कोलकाता फिल्म सोसाइटी द्वारा बनाई जा रही फिल्म के कुछ दृश्य दिखाकर उसको पूरा करने के लिए दर्शकों से मदद की अपील भी की गई। इस तीन दिवसीय फिल्मोत्सव के दौरान जहां मीडिया और सिनेमा में लोकतंत्र और सेंसरशिप विषय पर परिचर्चा हुई, वहीं प्रगतिशील लेखकों की विरासत को भी याद किया गया। पूरे फिल्मोत्सव के दौरान गोरखपुर के दर्शकों ने यहां लगाए गए बुक स्टॉल्स से किताबों और फिल्मों की सीडी की खरीदारी भी की। हर साल की तरह इस बार भी जनपक्षधर सिनेमा के दर्शकों की अच्छी-खासी मौजूदगी, सिनेमा, समाज और कला-संस्कृति के भविष्य के प्रति बेहतर उम्मीद जगाता प्रतीत हुआ।  

परिवार नियोजन योजना को युद्ध के समान बताया  ‘समथिंग लाइक अ वार’ ने 
आज फिल्मोत्सव की शुरुआत फिल्म ‘समथिंग लाइक अ वार’ से हुई। 1991 में बनी दीपा धनराज की फ़िल्म ‘समथिंग लाइक अ वार’ यूं तो मुख्य रूप से परिवार नियोजन प्रोग्राम में महिला की बलि और स्त्री यौनिकता के प्रश्न को केंद्र में रखकर बनाई गई थी, लेकिन इसी क्रम में दर्शकों को कई और साजिशों का पता देती है। 1980 के दशक में परिवार नियोजन के लिए स्त्रियों पर नोरप्लांट जैसे हार्मोनल निरोधक का इस्तेमाल भी किया गया था। यह ख़ासा नुकसानदायक निरोधक है जिसके बेजे प्रयोग के लिए हर जगह इसकी आलोचना हुई। इस फ़िल्म में भी दो महिलाओं से बातचीत के जरिये सरकार की अपने लोगों के प्रति लापरवाही और विदेशी हितों के साथ सीधे जुड़ने के षड्यंत्र का पता चलता है। इस फिल्म में महाराष्ट्र के परिवार नियोजन विभाग के निदेशक डॉ डी एन पाल का 1976 में दिया गया बयान गौर करने लायक है कि ‘‘ज्यादतियों की जिम्मेवारी उस कर्मचारी और सरकार की नहीं है. यह तो नतीजे हासिल करनी की हडबडी में हुई गलतियां हैं।’’ जिसे वे गलतियां भी न कहकर किसी अघोषित युद्ध की संज्ञा देते हैं।

इस फिल्म को देखते हुए 2014 के नवम्बर महीने में छतीसगढ़ में नसबंदी के दौरान सरकारी लापरवाही के कारण मारी गयी औरतों की भी याद आई। फिल्म की शुरुआत में ही जब स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. जे एल मेहता लेप्रोस्कोपिक नसबंदी के बारे में बता रहे हैं तब बहुत कुशलता के साथ कैमरा नसबंदी हो रही औरत के जबड़े को वार्ड बॉय के हाथों से दबाया हुआ कैद कर पाता है। मानों किसी औरत को नहीं बल्कि किसी जानवर के जबड़े पकड़ कर जबरदस्ती योजना थोपी जा रही हो। 

मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते: नफरत के दौर में इश्क की दास्तान
भारत-पाकिस्तान के विभाजन के दौरान हिन्दू, मुसलमान और सिखों ने एक दूसरे के दिलो-दिमाग में दहशत का जो अंधेरा बरपाया था, उसके बरखिलाफ इन समुदायों की आपसी मोहब्बतों के किस्से भी फिज़ाओं में थे। अजय भारद्वाज निर्देशित ‘मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते’ फिल्म में ऐसी ही एक कहानी है। 

अंग्रेजों के हिंदुस्तान छोड़कर जाने के वक्त धार्मिक आधार पर पंजाब का बंटवारा हुआ। मुस्लिम बहुल पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान में गया और हिन्दू-सिख बहुल पूर्वी पंजाब हिंदुस्तान में। जिंदगी जीने का एक शामिल तरीका- पंजाबियत, हाशिये पर धकेल दिया गया। दो राष्ट्र-राज्यों के परस्पर होड़ लगाते अस्मिता-बोध ने इस पंजाबियत की जगह ले ली। हालांकि पंजाबियत पूरी तरह मिटाई नहीं जा सकी। जाने- अनजाने यह पंजाबियत औसत पंजाबी की जिंदगी, बोली-बानी, संस्कृति, स्मृति और चेतना में आज भी पैवस्त है। यह फ़िल्म भारत वाले पूर्वी पंजाब की इसी पंजाबियत को केंद्र में रखती है। यह फ़िल्म दर्शकों को एक ऐसी दुनिया में ले गई, जहां उसे विश्वास हो सकता है कि संस्कृतियों को इतनी आसानी से मिटाया नहीं जा सकता। 

मध्यवर्गीय परिवारों में मौजूद वर्गीय भेदभाव को दिखाया ‘हमारे घर’ ने
युवा फ़िल्मकार किसलय की 31 मिनट की पहली लघु फीचर ‘हमारे घर’ मध्यवर्गीय घरों में मौजूद वर्गीय भेदभाव और शोषण को बहुत ही बारीकी से दिखाने में कामयाब रही। यह उनकी पहली फिल्म है और इसे दर्शकों ने काफी सराहा। फिल्म में मध्यवर्गीय राज और सिमरन के घर में पूरा वक्त काम करने वाली कमला और उसके मालिकों के बीच का व्यवहार पहली नजर में तो बहुत लोकतांत्रिक और स्नेह से भरा दिखता है, लेकिन आखि़री हिस्से के आते-आते आम और ख़ास के बीच की फांक को फ़िल्मकार बहुत संकेतों में, मगर मजबूती से कह जाता है। 

सेवा: साहित्यिक-सांस्कृतिक धरोहर के सवाल भी दुनिया की लड़ाइयों से जुड़े हैं 

निर्देशक दलजीत अमी की दस्तावेज़ी फिल्म ‘सेवा’ अमूल्य साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर  की  बात करती लगी। इस अमूल्य धरोहर को बचाने से लेकर उसे ज़््यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचाने के सवाल दुनिया भर में चल रहे जंगों से जा जुड़े। इस फिल्म ने स्थानिकता के घेरे में रहते हुए भी कई वैश्विक मसलों को उठाया। अमूल्य साहित्यिक और सांस्कृतिक धरोहर के सवाल पंजाब के हवाले से हैं पर दूसरे हवालों की जगह फिल्म छोड़ कर जाती है।

मुजफ्फरनगर बाकी है ....: सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ लड़ाई अभी बाकी है

नकुल सिंह साहनी की फिल्म ‘मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है...’ दसवें गोरखपुर फिल्मोत्सव में प्रदर्शित आखिरी फिल्म थी। इस फिल्म ने भारतीय राजनीति, सांप्रदायिकता और नए अर्थतंत्र के बीच के नापाक रिश्ते को बखूबी उजागर किया।पहले भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर और शामली ज़िलों में मुसलमानों और हिंदुओं के बीच रिश्ते बेहद सद्भावनापूर्ण थे। पर सन् 2013 के सितम्बर महीने में ये दोनों जिले किस तरह आज़्ााद भारत के सबसे बड़े मुसलमान-विरोधी नरसंहारों में से एक के गवाह बने और कैसे इस नरसंहार में 100 से अधिक लोग मारे गए और करीब 80,000 लोग विस्थापित हुए, फिल्म इसी की शिनाख्त करती है। 

‘मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है...’ तात्कालिक हिंसा और उसके परिणामों के साथ जनसंहार के अलग-अलग पक्षों तक पहुंचती है जैसे महिलाओं की इज्जत का सवाल (जो कि स्थानीय लोगों के आक्रोश की फौरी वजह बनी), भाजपा-आरएसएस समेत कई उग्र हिंदू राष्ट्रवादी संगठनों द्वारा किया गया सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, जातीय अस्मिता की राजनीति का वृहत हिंदुत्व में विलय और एक समय में इस क्षेत्र के हिन्दू-मुस्लिम किसानों की एकता का पर्याय रही भारतीय किसान यूनियन का विघटन। इन ज़िलों की दलित राजनीति के कई पहलुओं और समाजवादी पार्टी की संदिग्ध भूमिका की पड़ताल भी इस फिल्म ने की।  फ़िल्म की खासियत यह है कि यह इन सभी पहलुओं को, 2014 में हुए भारतीय आम चुनाव अभियान के हवाले से भी देखती है कि इन नरसंहारों की प्रतिध्वनि चुनावों में कैसे गूँजी। लेकिन फ़िल्म मुज़फ़्फ़रनगर और शामली ज़िलों में कॉर्पोरेट-सांप्रदायिक गठजोड़ के खिलाफ़ मौजूद प्रतिरोध के स्वरों से भी दर्शकों को अवगत कराती है। 

नेपाल के सिनेमाई इतिहास और माओवादी क्रांति में सिनेमा के योगदान से रूबरू हुए दर्शक

आज फिल्मोत्सव में काठमांडू में मार्क्सिज्म लर्निंग सेंटर चलाने और वहां नियमित रूप से सिनेमा दिखाने वाले विक्कील स्थापित ने नेपाल के सिनेमाई और सांस्कृतिक परिदृश्य पर एक महत्वपूर्ण प्रस्तुति दी। उन्होंने बताया कि नेपाली सिनेमा में 1951 से 1996 तक को स्वर्ण काल, 1996 से 2006 तक को अंधकार काल तथा 2006 से अब तक के दौर को हिरक काल के रूप में विभाजित किया जाता है, लेकिन पहला और तीसरा दौर मूलतः बालीवुड के सिनेमा की नकल का काल है। उन्होंने नेपाली इतिहास के एक खास दौर को दस्तावेजीकृत करने वाली ‘बलिदान’ फिल्म की खास तौर पर चर्चा की जिसका माओवादियों ने अपने आंदोलन के दौरान खूब इस्तेमाल किया। उन्होंने ‘ग्रेटर नेपाल’ नामक एक फिल्म की चर्चा भी की। उन्होंने बताया कि नेपाल में भी कुछ लोग फिल्मोत्सवों का आयोजन करते हैं, पर उनमें जनपक्षीय सिनेमा नहीं दिखाया जाता।

बड़ी कंपनियां डाक्यूमेंटरी फिल्मों की आजादी पर हमला कर रही हैं: अरुंधति राय

‘‘अच्छे दिन गरीबों के नहीं आए, बल्कि अमीरों के आए हैं। किसानों की जमीन छिनने वालों के लिए अच्छे दिन आए हैं। स्वच्छ भारत अभियान एक सर्कस है।’’ गोरखपुर फिल्मोत्सव की मुख्य अतिथि प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने आज प्रेस कांफ्रेंस में एक सवाल का जवाब देते हुए यह कहा। अरुंधति ने कहा कि बड़ी कंपनियां डॉक्यूमंेटरी फिल्मों की आजादी पर हमला कर रही है, जबकि गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल इन फिल्मों के लिए एक आजाद स्पेस निर्मित कर रहा है। उन्होंने कहा कि किसी भी तरह की फिल्म हो, उस पर बैन नहीं लगना चाहिए। चुनावों में दक्षिणपंथी शक्तियों की विजय के बाद बढ़ते खतरों के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि फिल्मों, किताबों और स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर खतरे बढ़े हैं। इंडियाज डाउटर अगर हमने बनाई होती, तो आज गुंडे हम पर हमले कर रहे होते। 

विगत पच्चीस-तीस वर्षों की राजनीति पर टिप्पणी करते हुए अरुंधति राय ने कहा कि बाजार और सांप्रदायिकता का ताला इस देश में एक साथ खुला। इस्लामिक आतंकवाद और माओवाद के नाम पर स्टेट को मिलिटराइज्ड किया गया। स्वास्थ्य, शिक्षा, जमीन पर अधिकार आदि तमाम लोकतांत्रिक सवालों को दरकिनार किया गया। उन्होंने कहा कि देश में प्रतिरोध का हाल यह है कि वह अब जमीन या संपत्ति के पुनर्वितरण के बजाए उसके बचाने की मांग तक सीमित रह गया है। पहले न्याय मांगा जाता था, लेकिन अब मानवाधिकार मांगा जा रहा है। 

गांधी जी के बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में उन्होंने अपनी किताब से गांधी जी के उद्धरण को पढकर सुनाया और कहा कि उनकी आलोचना आरएसएस की सांप्रदायिक विचारों से प्रेरित आलोचना से भिन्न है। आप की विजय पर उन्होंने कहा कि उसकी विजय से खुशी हुई, क्योंकि उससे फासीवाद का हवा कुछ निकला। आप वाले अब बड़ी-बड़ी कंपनियों के खिलाफ भी बोल रहे हैं। लेकिन वे क्या कर पाएंगे यह भविष्य बतलाएगा। 

अपनी पसंदीदा तीन डाक्यूमेंटरी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने शीघ्र प्रदर्शित होने वाली डाक्यूमेंटरी ‘कोर्ट’, मजदूरों द्वारा बनाए गए जनता हस्पताल पर केंद्रित अजय टीजी की डाक्यूमेंटरी ‘पहली आवाज’ तथा नकुल सिंह साहनी की डाक्यूमेंटरी ‘ मुज़फ़्फ़रनगर बाकी है’ का नाम लिया। 

प्रतिरोध का सिनेमा का यह सफर और आगे जाएगा
फिल्मोत्सव के समापन सत्र में प्रतिरोध का सिनेमा अभियान के दस वर्ष पूरे होने पर सिनेमा के जनसरोकार को लेकर दर्शकों, फिल्मकारों और आयोजकों के बीच संवाद हुआ। जनपक्षधर सिनेमा को और भी व्यापक जनता तक कैसे ले जाया जाए, इसके बारे में कई तरह के विचार आए। किन-किन ज्वलंत विषयों पर सिनेमा बनाने की जरूरत है, इस पर भी दर्शकों ने अपने विचार व्यक्त किए। 



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