दूसरे दिन फीचर फिल्म ’ धरती के लाल ‘, ’ फैंडी ‘ और ’ छिपा हुआ इतिहास‘ दिखाई गई
उदयपुर, 6 सितम्बर।
दयपुर फिल्म सोसायटी,द ग्रुप और जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित दूसरे उदयपुर फिल्म उत्सव के दूसरे दिन बच्चों ने अपनी पंसद की फिल्में देखीं, कहानी सुनी और कैनवस पर अपने मन का संसार रचा। इसके बाद प्रसिद्ध फिल्मकार, लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास की याद में 1946 में बनी उनकी फिल्म ’ धरती के लाल ‘, दस्तावेजी फिल्म ’ छिपा हुआ इतिहास‘ और चर्चित मराठी फिल्म ’ फैंडी ‘ दिखायी गई।महाराणा प्रताप कृषि विश्वविद्यालय, सूरजपोल का सभागार आज सुबह साढ़े नौ बजे तक बच्चों से खचाखच भर गया। कोई स्कूली डेस में आया था तो कोई रंग-बिरंगे कपड़ों में। बच्चे खूब खुश थे क्योंकि आज उन्हें फिल्म उत्सव में अपने मनपंसद फिल्में देखने और कहानी सुनने का मौका मिलने वाला था। इसके पहले बच्चो में कलर और शीट बांटी गयी और उन्हें उस पर अपने मन का संसार रचने को कहा गया। आम तौर पर बच्चों को कोई विषय दे दिया जाता है लेकिन आज उन्हें अपने सपनों की उड़ान को कागज में उतारने के लिए कोई विषय नहीं दिया गया। बच्चों ने विषय, रंग के दबाव से मुक्त होकर कैनवस पर चित्र उकेरे। किसी ने मोर, तोता, गिलहरी बनायी तो किसी ने झरना, बादल और पेड़-पौधे। बच्चों द्वारा बनाए चित्रों को आयोजन स्थल पर प्रदर्शित भी किया गया। इस सत्र का संयोजन चित्रकार मुकेश बिजोले, महावीर वर्मा और शैल चोयल ने किए।
दयपुर फिल्म सोसायटी,द ग्रुप और जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित दूसरे उदयपुर फिल्म उत्सव के दूसरे दिन बच्चों ने अपनी पंसद की फिल्में देखीं, कहानी सुनी और कैनवस पर अपने मन का संसार रचा। इसके बाद प्रसिद्ध फिल्मकार, लेखक ख्वाजा अहमद अब्बास की याद में 1946 में बनी उनकी फिल्म ’ धरती के लाल ‘, दस्तावेजी फिल्म ’ छिपा हुआ इतिहास‘ और चर्चित मराठी फिल्म ’ फैंडी ‘ दिखायी गई।महाराणा प्रताप कृषि विश्वविद्यालय, सूरजपोल का सभागार आज सुबह साढ़े नौ बजे तक बच्चों से खचाखच भर गया। कोई स्कूली डेस में आया था तो कोई रंग-बिरंगे कपड़ों में। बच्चे खूब खुश थे क्योंकि आज उन्हें फिल्म उत्सव में अपने मनपंसद फिल्में देखने और कहानी सुनने का मौका मिलने वाला था। इसके पहले बच्चो में कलर और शीट बांटी गयी और उन्हें उस पर अपने मन का संसार रचने को कहा गया। आम तौर पर बच्चों को कोई विषय दे दिया जाता है लेकिन आज उन्हें अपने सपनों की उड़ान को कागज में उतारने के लिए कोई विषय नहीं दिया गया। बच्चों ने विषय, रंग के दबाव से मुक्त होकर कैनवस पर चित्र उकेरे। किसी ने मोर, तोता, गिलहरी बनायी तो किसी ने झरना, बादल और पेड़-पौधे। बच्चों द्वारा बनाए चित्रों को आयोजन स्थल पर प्रदर्शित भी किया गया। इस सत्र का संयोजन चित्रकार मुकेश बिजोले, महावीर वर्मा और शैल चोयल ने किए।
इसके बाद बच्चों ने संजय मट्टू से दो कहानियां सुनीं। संजय मट्टू आल इंडिया रेडियो में समाचार वाचक हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापक हैं और फिल्म निर्माण से भी जुड़े हुए हैं। किस्सागो संजय मट्टू ने बच्चों को रोचक तरीके से दो लोक कथाएं सुनायीं। इनमें से एक लोककथा नागालैण्ड की थी तो दूसरी कथा पूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन की लिखी हुई थी। उन्होंने पूरे हाल में घूमते हुए पशु-पक्षियों की आवाज निकालते हुए और बच्चों से कहानी के पात्रों का अभिनय कराते हुए कहानी तो सुनाई ही, कहानी के जरिए प्रकृति से प्रेम और सहज-सरल जिंदगी जीने का सीख भी दे गए।
इस प्रस्तुति के बाद बच्चों उदयपुर के रिधम जानवे द्वारा निर्देशित फिल्म ‘कंचे और पोस्टकार्ड ’ दिखायी गयी। यह फिल्म विपिन नाम के बच्चे की कहानी है जिसमें उसके मामा मोहल्ले के बच्चों के साथ कंचे खेलने नहीं जाने देते क्योंकि उनको विपिन की सोहबत बिगड़ने का अंदेशा है। इस फिल्म में उदयपुर के कलाकारों ने काम किया है। मुख्य भूमिका प्रद्युम्न सिंह चैधरी ने निभायी है। बाल कलाकारों में मोहम्मद साहिल, यश भटनागर युग भटनागर, खुशराज और दिलीप की महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं। इसके अलावा उदयपुर के ही सतीश आशी, उषा रानी भटनागर और विलास जानवे ने इसमें अभिनय किया है। फिल्म के प्रदर्शन के बाद बच्चों का फिल्म की टीम के साथ रोचक संवाद हुआ। बच्चों ने फिल्म के खर्च, शूटिंग, कलाकारों के चयन आदि के बारे में सवाल किए।
बच्चों के सत्र के बाद दस्तावेजी फिल्म छिपा हुआ इतिहास और फीचर फिल्म ’ धरती के लाल ‘ और ’ फैंडी ‘ का प्रदर्शन हुआ। इस दौरान ’ सिनेमा और प्रतिरोध: नए रास्तों की तलाश ‘ विषय पर पैनल डिस्कशन भी हुआ। अहमद अब्बास की फिल्म धरती के लाल प्रदर्शित किए जाने के पहले कवि एवं आलोचक डा. हेमेन्द्र चण्डालिया ने अपनी प्रस्तुति ’ यर्थाथ का चितेरा: ख्वाजा अहमद अब्बास ‘ के जरिए ख्वाजा अहमद अब्बास के जीवन और उनके कार्यों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। उन्होंने कहा कि ने अपनी फिल्मों, लेखन से देश के सामाजिक यर्थाथ को बेबाकी से बयां किया।
छिपा हुआ इतिहास सुप्रसिद्ध इतिहासकार उमा चक्रवर्ती की फिल्म है। इस दस्तावेजी फिल्म के जरिए उन्होंने 20वीं सदी की शुरूआती दशकों में भारतीय राजनीति की मुख्य धारा में चल रही उथल-पुथल से कदमताल मिलाती एक सामान्य महिला के अपने संघर्षों को व्यापक जगत से जोड़ने की कोशिश की है। यह फिल्म घरेलू तमिल महिला सुबलक्ष्मी के डायरी पर केन्द्रित है। सुबलक्ष्मी की नातिन इतिहासकार मैथिली अपनी मां के संस्मरणों, डायरी के लिखे पन्नों और छिट-पुट सुनी बातों के आधार पर उनकी कहानी कहती हैे। इस फिल्म की खासियत हाशिए के इतिहास को तलाशना है जिसे अब तक अनदेखा किया गया है।यह उन फिल्मों में है जिसने भारतीय यथार्थवादी सिनेमा की नींव डाली। यह इन्डियन पीपुल्स थियेटर्स एसोसियेशन ( इप्टा ) का एकमात्र एकमात्र औपचारिक निर्माण है। यह ख्वाजा अहमद अब्बास की बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी। बलराज साहनी-दमयंती साहनी और बांग्ला थियेटर के नामचीन शम्भू मित्रा-तृप्ति मित्रा ने इसमें अभिनय किया था। यह फिल्म बंगाल के अकाल की त्रासदी के अनेक आयामों को सामने रखती है और शोषण के खिलाफ चेतना जगाती है।
दिखायी गई 104 मिनट की मराठी फिल्म फैंड्री मराठी के युवा कवि और फिल्मकार नागराज मंजुले की पहली फीचर फिल्म है। ‘ फैंड्री ’ महाराष्ट के दलित समुदाय कैकाडी द्वारा बोले जाने वाली बोली का शब्द है जिसका अर्थ सुअर है। फिल्म एक एक ऐसे दलित किशोर की कहानी है जो अपनी कक्षा में पढ़ने वाली उच्च जाति की एक लड़की से प्यार प्रेम करने के सपने बुनता है जबकि वास्तविक हालात उसे न सिर्फ सूअर पकड़ने के लिए मजबूर करते बल्कि सूअर जैसा बनने के लिए धकेलते भी है। ‘ फैंड्री ’ इस दिवास्वन से बाहर आकर अपनी पहचान की लड़ाई को स्वर देने का महत्वपूर्ण काम भी करती है।
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