Saturday, 20 September 2014

दूसरे उदयपुर फिल्म उत्सव का शानदार आगाज


उदयपुर, 5 सितम्बर। डाक्यूमेंटरी फिल्मों का दायरा निरन्तर बढ़ रहा है और दायरा बढ़ने के साथ-साथ ही इसकी परिभाषा भी बदलती जा रही है। इसका फार्म भी बदल रहा है है। इसके बावजूद इसकी मुख्य पहचान है और यह पहचान अभी भी अपरिवर्तित है। प्रतिरोध का सिनेमा की सबसे बड़ी खसियत यह है कि यह बहस छेड़ता है और दर्शकों से संवाद करता है। यह बातें चर्चित फिल्मकार संजय काक ने आज दोपहर महाराणा प्रताप कृषि विश्वविद्यालय सूरजपाल के सभागार में दूसरे उदयपुर फिल्म उत्सव का उद्घाटन करते हुए कही। उदयपुर फिल्म सोसाइटी, द ग्रुप और जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित फिल्म उत्सव के उद्घाटन वक्तव्य में, ’पानी पर लिखा‘,‘ जश्न-ए-आजादी‘, ’ माटी के लाल ‘ जैसी महत्वपूर्ण डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाने वाले संजय काक ने कहा कि डाक्यूमेंटरी फिल्में एक ऐसा जरिया हैं जिसके माध्यम से हम बहस कर सकते हैं। आज डाक्यूमेंटरी फिल्मों के लिए बहुत अच्छा माहौल है। कुछ फिल्में तो थियेटर में रिलीज हुई है लेकिन इसे डाक्यूमेंटरी की जीत मानना ठीक नहीं है क्योंकि किसी भी कला की बाजार में सफलता हमारी सफलता नहीं है। हमारी सफलता के और मायने हैं। हमारी असल सफलता उदयपुर फिल्म फेस्टिवल में हमारी फिल्मों का प्रदर्शन और उस पर बहस होना है। 

उन्होंने कहा कि डाक्यूमेंटरी के निर्माण का स्रोत एक जैसा नहीं होता बल्कि अलग-अलग होता है और यही इसके तीखेपन को बनाए रखता है। डाक्यूमेंटरी फिल्में बनाने में धन की जरूरत पड़ती है और यदि धन दर्शकों के जरिए आए तो इसकी स्वतंत्रता बरकरार रहेगी। आज मास मीडिया, कार्पोरेट मीडिया इस तरह छाया हुआ है जैसे लगता है कि पैसे के बाहर कोई दुनिया ही नहीं है। हमें इस तर्क को न सिर्फ खारिज करना है बल्कि तोड़ना भी है। 

इसके पूर्व सुप्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने कहा कि वर्चस्व व सत्ता की संस्कृति का मुकाबला एक कला माध्यम से नहीं हो सकता बल्कि सभी कलाओं के सम्मिलित रूप से ही किया जा सकता है। जन संस्कृति मंच इस उद्देश्य के तहत काम कर रहा है। उन्होंने कहा कि आज कला को मेटो केन्द्रित बना कर इसको बदलने की कोशिश हो रही है जबकि हिन्दुस्तान की कला छोटे-छोटे शहरों से लेकर गांवों तक है जिसे हम अपने कार्यक्रमों के जरिए सामने लाने का प्रयास करते हैं। जैनुल आबेदिन जन्म शती समिति के संयोजक आशुतोष कुमार ने कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा में हम हर तरीके के सृजनात्मक कलाओं को जोड़ते हैं। यह कला और संृजन का फेस्टिवल है। उन्होंने कहा कि हम आज एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो सिनेमा की तरह हैं। इस सिनेमा में सुपर पावर के सुपर हीरो की तरह बुश, ओबामा और ऐसे ही कुछ और सुपर हीरो हैं जो दुनिया की सभी अच्छाइयों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हुए बुराइयों के खिलाफ लड़ने की बात करते हैं लेकिन इन्ही सुपर हीरो ने अबू गरेब के कैदखानों में निर्दोष कैदियों पर अकल्पनीय यातना ढाही हैं, इन्होंने ही इराक पर हमला कर आठ से दस लाख बच्चों का कत्ल किया है। एक पूरी सभ्यता को नष्ट किया है। सुपर हीरो वाला यह सिनेमा जो सिनेमा, टेलीविजन, विश्वविद्यालयों के सेमिनारों के जरिए हमारे सामने आता है, बहुत से मुद्दों को बहस से दूर रखता है, हकीकत देखने और दिखाने से रोकता है। हम प्रतिरोध का सिनेमा के जरिए दूसरे तरह का सिनेमा दिखाते हैं जिसमें प्रतिरोध और हकीकत है। प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने कहा कि प्रतिरोध का सिनेमा की सबसे बड़ी खासियत नो स्पान्सरशिप है। प्रतिरोध के सिनेमा के जरिए उदयपुर में राजस्थान और आजमगढ़ में फिलस्तीन को देखना और समझना है। उदयपुर फिल्म सोसाइटी के संयोंजक शैलेन्द्र सिंह भाटी ने कहा कि पहले उदयपुर फिल्म फेस्टिवल के बाद उदयपुर में राजसमंद में लावा सरदारगढ़, नयापुरा और सलूम्बर में फिल्म क्लब शुरू हुआ है। प्रतिरोध का सिनेमा ने उदयपुर के लोगों में नई उम्मीद पैदा की है और लोग हकीकत से वाकिफ हो रहे हैं। 

उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता कर रहे उदयपुर फिल्म सोसाइटी के अध्यक्ष डा. नरेश भार्गव ने कहा कि यह आयोजन इसलिए अनूठा है कि हम सब एक जगह एकत्र होकर सिनेमा देख रहे हैं और उस पर बहस कर रहे हैं। उन्होंने जनप्रतिरोध में सिनेमा की भमिका को महत्वपूर्ण बताया। कार्यक्रम के प्रारम्भ में उदयपुर फिल्म सोसाइटी से जुड़े युवाओं ने प्रसिद्ध कवि बल्ली सिंह चीमा का गीत ’ ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के ‘ गाया। उद्घाटन सत्र का संचालन हिमांशु पंड्या ने किया।

चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन

उद्घाटन सत्र के बाद कार्यक्रम स्थल पर महान चित्रकार जैनुल आबेदिन के साथ-साथ मध्यप्रदेश से आए दो चित्रकारों महावीर वर्मा और मुकेश बिजोले की चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ। प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक ने चित्र प्रदर्शनी का उद्घाटन करते हुए कहा कि हम दिल्ली की सत्ता द्वारा प्रायोजित चित्रकला को नहीं मानते। इसलिए हम इस प्रदर्शनी के माध्यम से छोटे शहरों की चित्रकला को सामने ला रहे हैं। एक तरफ यहां पर महान चित्रकार जैनुल आबेदिन की प्रतिरोध की कला है जिसमें विरोध की गूंज है, प्रतिरोध का आह्वान है तो दूसरी तरफ आज के चित्रकार महावीर वर्मा व मुकेश बिजोले के चित्र हैं जो अपने समय के प्रतिरोध की कला हैै। इस चित्र प्रदर्शनी के जरिए हम आर्ट गैलरियों तक नहीं पहुंच पाने वाली जनता के पास खुद चलकर आए हैं। मुकेश बिजोले के चित्रों में उत्सव, सामूहिकता और आदिवासी जीवन के प्रकृति के साहचर्य की छवियां हैं जो महावीर वर्मा शहर की दैनंदिन जीवन की छविया उकेरते हैं।


दूसरे उदयपुर फिल्म उत्सव में पहले दिन दर्शक एक तरफ महान चित्रकार जैनुल आबेदिन के चित्रों पर विजुअल प्रस्तुति के जरिए चित्रकला में प्रतिरोध के रंग से परिचित हुए तो दूसरी तरफ उन्होंने संजय काक की डाक्यूमेंटरी ’ माटी के लाल ‘ में इंकलाबी सपनों के साथ गैरबराबरी, अन्याय के खिलाफ लड़ रहे लोगों के संघर्ष को देखा।

आज पहले दिन फिल्म उत्सव की शुरूआत फिलस्तानी जनता को समर्पित रफीफ जिदाह की काव्य वीडयो ’ वी टीच लाइफ सर ‘ के प्रदर्शन से हुई। इसके बाद दिखायी गई निष्ठा जैन निर्देशित ‘ गुलाबी गैंग ’ उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड इलाके के बांदा गुलाबी गैंग नाम के महिलाओं के संगठन और उसके संघर्ष के बारे में है। इस संगठन की महिलाएं गुलाबी साड़ी पहनती हैं और हाथ में लाठी लिए महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ती हैं।यह फिल्म एक तरफ सम्पत पाल को पितृसत्तात्मक दबावों से लोहा लेने वाली महिला के रूप में दिखाती है तो साथ ही सम्पत पाल को खास जगह पर व्यवस्था की गणित से संचालित भी दिखाती हैं। यह फिल्म एक आंदोलन के बढ़ने-बनने से लेकर उसके कमजोर पहलुओं की ओर भी इशारा करती है।

मशहूर अभिनेत्री जोहरा सहगल की याद उन पर बनी दस्तावेजी फिल्म दिखायी गई। रंगकर्मी एमके रैना और अनंत रैना द्वारा बनायी गयी दस्तावेजी इस फिल्म में जोहरा सहगल की जिंदगी की यादे हैं, उनकी दुर्लभ तस्वीरें हैं। उनकी जवानी और बचपन है। पृथ्वी थियेटर, उदय शंकर टुप, अपने विद्यार्थी कामेश्वर सहगल से शादी, परिवार और उनके द्वार अभिनीत फिल्मों-सभी को समेटते हुए एक यादगार जिंदगी की यादगार तस्वीर उकेरी गई है। यह फिल्म जोहरा सहगल के कई अनछुए पहलू को सामने लाती है। 

दूसरी डाक्यूमेंटरी ‘ इन द नेम आॅफ डेवलपमेंट ’ बहुप्रचारित विकास के गुजरात माॅडल के घने अँधेरों पर हकीकत की रोशनी डालती है। गोपाल मेनन की यह फिल्म ‘ विकास के नाम पर ’ हमारे समय की जरूरी फिल्म है। विकास किसका हुआ है, विकास कैसे हुआ है, विकास कहाँ तह पहुंचा है, इन सवालों के जवाब देने वाली यह फिल्म हमें गुजरात में आम-अवाम की जिंदगी तक पहुंचाती है। कन्या भ्रूण हत्या, शिक्षा, स्वास्थ्य, कुपोषण, मैला ढ़ोने की अमानवीय हालत आदि रोजमर्रा के ज्वलंत सवाल इस तथाकथित विकास के गुब्बारे में हकीकत की सुई चुभो देते हैं। यह फिल्म विकास के गुजरात मॉडल की हकीकत को रेशा रेशा उधेड़ती है। 

गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ संघर्ष की कहानी कही ’माटी के लाल‘ ने फिल्म उत्सव के अंत में चर्चित फिल्मकार संजय काक की डाक्यूमेंटरी माटी के लाल दिखायी गयी। यह डाक्यूमेंटरी गैरबराबरी, अन्याय के खिलाफ और जल, जंगल व जमीन बचाने के लिए लड़ रहे उन लोगों की कहानी है जो एक नई समानता भरी दुनिया का स्वप्न देखते है। वह स्वप्न जो आज एक खतरनाक स्वप्न है। फिल्म यह स्वप्न देखने के लिए उन इलाकों में घूमती है जिसे सर्वाधिक असुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया है। फिल्म में निर्देशक का कैमरा बस्तर जाता है जहां माओवादियों ने सरकार के सामने गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है। फिर ओड़ीसा जहां समाजवादियों का एक पुराना धड़ा आज भी बिना हथियार के संघर्ष कर रहा है। फिल्म हमें पंजाब ले जाती है जहां आशा के नए आदर्श शहीदे आजम भगत सिंह की करिश्माई छवि के इर्द-गिर्द बुने जा रहे हैे। यह फिल्म दरअसल इंकलाबी सपनों और संभावनाओं की तहकीकात है।


जैनुल आबेदिन के चित्रों पर दृश्यात्मक प्रस्तुति-अकाल की कला
आज पहले दिन की खास प्रस्तुति थी-मशहूर चित्रकार अशोक भौमिक द्वारा महान चित्रकार जैनुल आबेदिन की चित्रों के ऐतिहासिक अवदान पर दृश्यात्मक प्रस्तुति अकाल की कला। अशोक भौमिक ने इस प्रस्तुति में कहा कि जैनुल आबेदिन के अकाल-चित्र अकाल की अमानवीय हकीकत से हमारा सामना तो कराते ही हैं, यह भी दिखाते हैं कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं, मानव निर्मित ‘ राजनीतिक ’ है। अशोक भौमिक ने कहा कि जैनुल आबेदिन का कहना था कि कलाकार का असली काम मनुष्य के द्वारा मनुष्य के खिलाफ रचे जा रहे षडयंत्र को उजागर करना है। इस प्रस्तुति के बाद बातचीत में दर्शकों ने चित्रों की सम्प्रेषीणयता, विषयवस्तु बनाम कला, कैलेण्डर आटर््स पर सवाल किए जिसका जवाब देते हुए अशोक भौमिक ने कहा कि कविता, कहानी, पेटिंग को एक तरह से नहीं समझा जा सकता। मुश्किल यह है कि कला को समझने के लिए स्पष्ट धारणा नहीं है। आज चित्रों को मुक्ति की जरूरत है।

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