कैराना का सच यहाँ है, वहाँ नहीं
'कैराना सुर्ख़ियों के बाद' डॉक्युमेंट्री फ़िल्म पर दर्शकीय टिप्पणी
फ़िल्म से गुज़रते हुए कई बार लगा कि 'कैराना सुर्ख़ियों के बाद' जैसी दस्तावेज़ी फ़िल्म बनाने के लिए किसी भी फ़िल्मकार को नकुल सिंह साहनी होने की ज़रूरत हमेशा रहेगी। प्रतिरोध की आवाज़ को मुक्कमल तरीके से अंजाम तक पहुँचाना और किसी भी बहुत गंभीर मुद्दे को आमजन के बीच सहज बनाकर असल रूप में समझाने की जिम्मेदारी नकुल भाई ने बहुत तल्लीनता से निभाई है। हम एक ऐसे वक़्त में जी रहे हैं जहां जनसंचार के तमाम माध्यम हमें सच तक ले जाने के बजाय ज्यादा दिशा भ्रमित कर रहे हैं। ऐसे में इस तबियत का डॉक्युमेंट्री सिनेमा एक आस जगाता है।यहाँ कहना होगा कि जानेमाने फिल्म एक्टिविस्ट संजय काक और आनंद पटवर्धन की परम्परा में नकुल जैसे साथी हिम्मत बंधाते अनुभव हुए। यही वो वक़्त है जिसमें धर्म का राजनीतीकरण करके उसे चुनावी फसल में तब्दील करने की तमाम कोशिशें आकार ले रही है।यह सावचेत रहने का दौर है। एक तरह से समझें तो आमजन को बेवजह के मुद्दों में उलझा कर रखने और मूल सवालों से दूर भगाने की मानसिकता पर करारा जवाब है यह फ़िल्म।
'मुज्ज्फ़रनगर बाक़ी है' और 'इज्ज़तनगर की असभ्य बेटियाँ' जैसी संवेदनशील और पर्याप्त चर्चा प्राप्त दस्तावेज़ी फ़िल्मों के निर्देशक नकुल की यह फ़िल्म भी एक और बड़ी सफलता मानी जाए। वंचितों,पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के पक्ष में प्रतिबद्धता के साथ खड़े होना नकुल की आदत रही है जो यहाँ भी साबित हुई है।मुश्किल वक़्त में सच को बचाए रखने का साहसिक प्रयास है इस फ़िल्म का निर्माण। 'कैराना' केन्द्रित यह डॉक्युमेंट्री हमारी बनी-बनाई परिभाषाओं को फिर से करेक्ट करती है। 'चलचित्र अभियान' के बैनर तले निर्मित यह फ़िल्म कुल-जमा सताईस मिनट की ही है मगर इसका प्रभाव बहुत गहरे तक झकझोरता है। अपनी शुरुआत से आखिर तक फ़िल्म हमारी समझ को अपने ढंग से गढ़ती हुई आगे बढ़ती है। मुस्लिम बहुत क्षेत्र कैराना से कई परिवारों का विस्थापन सालों से एक बड़ा मुद्दा रहा है मगर इसके सही कारण ढूँढने के बजाय उसे धार्मिक समीकरणों में उलझाने के कुटनीतिक प्रयास हुए हैं। यही फ़िल्म बनाने का मूल कारण है। ये प्रयास उस इलाके को मुसीबत और अफवाहों के जंगल में धकेलते रहे। मगर सच आखिर इस फ़िल्म के ज़रिए सामने आ ही गया।
फ़िल्म में शामिल दर्ज़नभर बयान हमें यह विश्वास दिलाते हैं कि विस्थापन की वजहों में दोनों कौमों के बीच के मतभेद तो कारण कतई नहीं हैं। फ़िल्म पुरजोर तरीके से अपनी बात रखती है कि बड़ी अफ़वाहों का बाज़ार तैयार करके किसी भी कसबे के ज़रूरी मुद्दों को अँधेरे में धकेलना उनके के लिए एक खेल है। ज्यादा ख़ास सवालों को डी-फोकस करने की चालें सत्तासीनों का पुराना अंदाज़ है। फ़िल्म हमें हर मिनट सवालों की जड़ों में ले जाती है। पिछले कई दशकों की पड़ताल पर जाएंगे तो पाएंगे कि कैराना में रोज़गार, चिकित्सा, शिक्षा और मुलभुत सुविधाओं को अरसे से नज़रंदाज़ किया जाता रहा है। इस तरह कैराना और आसपास के इलाके के अविकसित और पिछड़े रह जाने का जिम्मेदार कौन है? इधर कई और मसले भी हैं जो फ़िल्म में मुखर होते हैं जैसे तथाकथित ऊंची जातियों की दबंगई और रंगदारी। कॉलेज पढ़ती छात्राएं जब बयान देती है तो एक-एक कर कैराना की हकीक़त बेपर्दा होती जाती है।
फ़िल्म पुरुषवर्चस्ववादी समाज की दकियानूसी मानसिकता पर भी कई बार करारी चोट करती अनुभव होती है। आमजन के बयान सत्ताधारियों की जड़ें खोदते नज़र आते हैं। साम्प्रदायिक सद्भावभरे माहौल पर ज़बरन धार्मिक उन्माद के समीकरण थोपना उनका पुराना शगल है मगर आमजन की आपसदारी और उनका भीतरी प्रेम-सौहार्द कस्बे को जलने से हमेशा बचाता रहा है। मंदिर परिसर में नज़ीर और राजेन्द्र का सामलाती बयान ही हमारे भाईचारे की एक बड़ी मिसाल मानी जाए। ऐसे दृश्यों को शूट करने के लिए नकुल का शुक्रिया बनता है। कौमी एकता की यह मिसाल ही हमारे लोकतांत्रिक भारत को थामे है। राजनीति में परिवारवाद पर फोकस करता कैमरा भी हमें बहुत कह जाता है। यह सबकुछ उगलवाने की ताकत और मेधा ही निर्देशक को बड़ा बनाती है। वहीं यह फ़िल्म अपने आखिरी हिस्से में सदियों से समाज को खोखला बनाते जातिगत भेदभाव के गणित को भी उजाले में लाती है। ब्राह्मणवादी मानसिकता का दंश झेलते दलित युवाओं के मुखर बयान हमारी अभी तक की वैचारिकी के मानदंड को गड़बड़ा देते हैं। फ़िल्म ढेरों मुद्दों को चौतरफा एंगल से शूट कर हमें आईना दिखाती है।
आम आदमी, आम औरतें और दलित बहुत कुछ करना चाहते हैं। उन्हें सत्ता की तरफ से कभी संबल नहीं दिया गया। वे भी अपने हिस्से का आकाश मांगते हैं। वे भी उड़ना चाहते हैं अपने हिस्से की उड़ान। कैराना देशभर को चीख चीखकर कहना चाहता है कि कर सको तो हमारी असली मुसीबतों पर गौर करो। हमें नकली मुद्दों में ज़बरन धकेल हमारे अखंड और सदियों पुराने भाईचारे के बीच अंशाति मत पैदा करो। कुलजमा नकुल सिंह साहनी का कैराना की सही तस्वीर हम तक पहुँचाने के लिए शुक्रिया।लग रहा है कैराना का सच यहाँ है,वहाँ नहीं।
चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी की चर्चा का सार है जो चौथे उदयपुर फ़िल्म फेस्टिवल की स्मारिका से साभार यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है
0 comments:
Post a Comment