Friday, 14 October 2016

बुनियादी जरूरतों के साथ-साथ अस्मिता का सवाल भी दलितों के लिए बेहद जरुरी: जयेश सोलंकी

14 अक्टूबर, उदयपुर। 

आज सुबह 11 बजे विद्याभवन सभागार में प्रतिरोध का सिनेमा के चौथे उदयपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का आगाज़ दलित प्रतिरोध के नए स्वर, इज़्जत के नाम पर हो रहे अपराध मुद्दों और डेल्टा मेघवाल और रोहित वेमुला के लिए न्याय के समर्थन के साथ हुआ। आज सबसे पहले अमेरिकी गीतकार और लोकगायक बॉब डिलन के गीत 'ब्लोइंग इन द विंड'  की प्रस्तुति हुई, इन्हें साल 2016 का साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार दिया गया है। उद्घाटन सत्र में सीमावर्ती जिले बाड़मेर से सांस्थानिक हत्या की शिकार डेल्टा मेघवाल के पिता महेन्द्रा राम मेघवाल और गुजरात के दलित आंदोलन का नेतृत्व करने वाली 'ऊना दलित अत्याचार लड़त समिति' के सह-संयोजक जयेश सोलंकी और प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी शामिल हुए। इस दौरान अपना वक्तव्य देते हुए डेल्टा के पिता महेन्द्रा राम मेघवाल ने अपनी बेटी के साथ हुई अमानवीय घटना के बारे में बताया और कहा कि इस घटना ने उनके परिवार को मानसिक रूप से तोड़ दिया है। उन्होंने कहा कि वे समझते है कि इस घटना का उन्हें बहुत दर्द है क्योंकि इससे उनके गांव और आसपास के क्षेत्र में बालिका शिक्षा पर बेहद नकारात्मक असर हुआ है और लोगों ने अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा के लिए भेजना बंद कर दिया है। सरकार एक ओर 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' की बात करती है लेकिन वह दलित बेटियों के साथ हुए अत्याचार पर मामलों को दबाने का काम करती है और जाँच के नाम पर महज औपचारिकता करती है जो कि उचित नहीं है। इन्होंने आगे कहा कि अब उनकी ज़िंदगी का एकमात्र मकसद डेल्टा को न्याय दिलाना है।

इनके बाद जयेश सोलंकी ने गुजरात के ऊना में शुरू हुए दलित आंदोलन के बारे में बताते हुए अपना उद्बोधन दिया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि इस आंदोलन की वजह से देश में राष्ट्रीय स्तर पर जाति के सवाल पर चर्चा शुरू हुई है। यहाँ लोग अब तक यह मानते भी नहीं थे कि जातिवाद जैसी कोई समस्या है, ऊना के दलित आंदोलन से यह जाहिर हुआ है कि जातिवाद कितनी भयानक समस्या है। अगर यह समस्या सिर्फ दलितों का मुद्दा है तब यह दिक्कत की बात है। जिन्होंने बताया कि ऊना के दलित आंदोलन में दो प्रमुख मांगे उभर कर सामने आई। पहली मांग बुनियादी जरूरतों से जुडी हुई है जिसमें दलितों के लिए रोटी, कपड़ा, आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ दूसरी मांग दलितों के आत्म-सम्मान से जुडी हुई है। कि हमें बुनियादी जरूरतों के साथ-साथ सम्मान भी चाहिए। भारत के प्रगतिशील लोगों ने दलितों के बुनियादी सवालों को जरूर उठाया है लेकिन दलितों की अस्मिता से जुड़े सवाल वे नजरअंदाज कर गए।

उद्घाटन सत्र में अपनी बात रखते हुए संजय जोशी ने कहा कि जिस तरह से देश के वर्तमान हालात है जहाँ एक दलित के छू लेने मात्र से उसका गला काटकर हत्या कर दी जाती है, अल्पसंख्यकों से जुड़े मामलों में सत्ता के पक्षपाती रवैये से लोकतंत्र की संप्रभुता पर सवाल खड़े हो रहे है। जब देश में दलित, आदिवासी, पिछड़ों, मुस्लिमों और महिलाओं के साथ दोयम व्यवहार किया जाता रहेगा, उनका शोषण होता रहेगा तब तक संप्रभुता बेमानी होगी। संजय जोशी आगे कहते है कि ऐसे वक़्त में हमारा परेशान होना लाज़िमी है और हमें इन सभी मुद्दों पर पहल करते हुए लोगों के बीच संवाद करने की जरुरत है, चाहे इसके लिए सांस्कृतिक गतिविधि की जाये या सिनेमा, नाटक आदि के जरिये यह किया जाये। क्योंकि बात करने से बात बनेगी, वैकल्पिक समाधान सामने आएंगे। ये आगे कहते है कि किसी भी विवादस्पद मुद्दे पर बात करने से सामाजिक सौहार्द नहीं बिगड़ता।

उद्घाटन सत्र के आखिर में उदयपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के संयोजक धर्मराज जोशी में अपनी बात रखी और उदयपुर फ़िल्म सोसायटी के अब तक के सफ़र के बारे में बताया। इन्होंने कहा कि देश में हाशिये के लोगों के सवालों को उठाते हुए प्रतिरोध की गतिविधियां करना जरुरी हो जाता है। यह लोकतंत्र की मजबूती के लिए बहुत जरुरी है। इनके बाद सांस्कृतिक कर्मी बृजेश यादव ने अपने गीतों और कविताओं की प्रस्तुति से आमजन की समस्याओं को आवाज़ दी। उद्घाटन सत्र के बाद आज नकुल सिंह साहनी की दस्तावेज़ी फ़िल्म 'कैराना: सुर्ख़ियों के बाद' का प्रीमियर हुआ। यह फ़िल्म कैराना पलायन मामले के संदर्भ में इस सच के तथ्य सामने रखती है कि वहां हिन्दू-मुस्लिम तनाव माँ मुद्दा राजनीतिक था, जबकि वहां से हिंदुओं के पलायन की वजह रोजगार और गुंडाराज है। इस फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान इसके सहायक निर्देशक अमृत राज मौजूद रहे और उन्होंने फ़िल्म प्रदर्शन के बाद दर्शकों के साथ संवाद भी किया। 

इसके बाद अतुल पेठे निर्देशित मराठी भाषा की दस्तावेज़ी फ़िल्म 'कचरा व्यूह' की स्क्रीनिंग हुई जो सफाई कामगारों के सवालों और उनकी समस्याओं को उठाने के साथ-साथ सफाई का काम करने वाले दलितों के बारे में आम नागरिकों के रवैये को भी सामने लाती है। यह फ़िल्म दिखाती है कि कैसे नारकीय हालातों में सफाई कर्मचारी काम करते हैं जो उनकी मौत की वजह भी बन जाते हैं। अतुल पेठे ने यह फ़िल्म प्रसिद्ध रंगकर्मी कन्हैयालाल और उन सफाई कामगारों को समर्पित की जिनकी काम करते हुए मृत्यु हो गई।

'कचरा व्यूह' फ़िल्म के बाद डूंगरपुर जिले के रमाकंवर हत्याकांड पर आधारित दस्तावेज़ 'अग्निशिखा' की स्क्रीनिंग हुई, इसे युवा फ़िल्मकार सौरभ कुमार ने निर्देशित किया है। इसमें इज़्जत के नाम पर ज़िंदा जला दी गई रमाकंवर की हत्या से जुड़े विभिन्न सवाल और तथ्य सामने आते हैं। इसके बाद राजस्थान में इज़्जत के नाम पर हो रहे अपराधों पर चर्चा के लिए विशेष सत्र रखा गया। इसमें सौरभ कुमार के साथ रमाकंवर के पति प्रकाश सेवक और प्रज्ञा जोशी शामिल हुए। इस दौरान प्रकाश सेवक ने अपनी बात रखते हुए कहा कि प्यार होना कोई तय बात नहीं थी, यह बस हो गया। मुझे लगता है कि जिससे मुझे प्यार हुआ उसने इसे पूरा निभाया। हमारी शादी हुई, इसके बाद हमारी एक लड़की हुई। इस प्यार की वजह से रमा को ज़िंदा जलाया गया। अब मैं अपराधियों को सजा दिलाने के लिए प्रतिबद्ध हूँ। यहाँ प्रज्ञा जोशी ने प्रकाश सेवक की बात को आगे बढ़ाते हुए बताया कि रमाकंवर की माँ ने अपने सामने अपनी बेटी को ज़िंदा जलाते हुए देखा लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा। इन्होंने बताया कि इस मामले में पैरवी करते हुए उन्हें इसके विजुअल डॉक्यूमेंट बनाने की जरुरत महसूस हुई तब सौरभ कुमार ने यह बीड़ा उठाया। इस काम में उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी के महिपाल सिंह का सहयोग उल्लेखनीय रहा। सौरभ कुमार ने इस सत्र के दौरान बताया कि उन्हें रमाकंवर मामले पर 'अग्निशिखा' बनाते हुए कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। चाहे वह जाति की पहचान को लेकर हो या राजपूत समुदाय की पारंपरिक छवि और उनके सामाजिक आदर्शों से टकराव हो, यहाँ एक दस्तावेज़ी फ़िल्म बनाना आसान काम नहीं था। इस सत्र में उपस्थित श्रोताओं के साथ संवाद भी किया गया। इसमें प्रज्ञा जोशी ने बताया कि रमाकंवर और प्रकाश सेवक दोनों का बालविवाह हुआ था जिसके बाद में उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बारे में फैसला लिया था। राजस्थान बालविवाह को लेकर बदनाम है। ऐसे में हमें संवैधानिक मूल्यों को समझने की जरुरत है।

उदयपुर फ़िल्मोत्सव के आज सबसे आखिर में नागराज मंजुले निर्देशित मराठी फीचर फ़िल्म दिखाई गई। यह फ़िल्म अंतर्जातीय युगल के प्रेम और उसकी जटिलताओं के बारे में हमारे सामने कथानक प्रस्तुत करती है। यह फ़िल्म जाति और रंग के बारे में बनाई गई धारणाओं को खंडित करती है। इसमें एक महिला के वजूद के विभिन्न पहलुओं को बताया गया है कि समाज उनके बारे में कितना पूर्वाग्रह रखता है।

यह फ़िल्म फ़ेस्टिवल पहले राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय परिसर के सभागार में होने वाला था लेकिन वहां ABVP के विरोध के बाद उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी को जगह देने के मना कर दिया गया। इनके विरोध की वजह यह रही कि हम रोहित वेमुला के न्याय की बात क्यों कर रहे हैं। इसके बावजूद आज चौथे उदयपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का कार्यक्रम यथावत रहा और इसे विद्याभवन सभागार में सफलतापूर्वक संपादित किया गया। उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी इस पक्ष पर कायम है कि विभिन्न मुद्दों पर संवाद करने से सामाजिक सौहार्द नहीं बिगड़ता बल्कि इससे समाधान के रास्ते निकलते हैं।

प्रतिरोध का सिनेमा, संगीत और आंदोलन और अंतरार्ष्ट्रीय स्तर पर इसकी पहुँच के साथ चौथे उदयपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का हुआ समापन
16 अक्टूबर, उदयपुर। 14 अक्टूबर को उदयपुर के विद्याभवन सभागार में शुरू हुए चौथे उदयपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के तीसरे और आखिरी दिन आज सुबह 9.30 बजे पहले अमुधन आर.पी. निर्देशित दस्तावेज़ी फ़िल्म 'डॉलर सिटी' की स्क्रीनिंग हुई। यह फ़िल्म तमिलनाडु के तिरुप्पुर शहर के बारे में है, तिरुप्पुर अपनी हजारों कपडा मिलों के लिए जाना जाता है। फ़िल्म में बताया गया कि मालिकों, बिचौलियों और मजदूरों के बीच व्यवस्था को लेकर एक तरह की सहमति बन चुकी है और शोषित को अपना शोषण स्वाभाविक लगने लगा है। उन्हें ऐसे में अपनी बेहतरी, अर्थव्यवस्था की बेहतरी का अभिन्न हिस्सा लगने लगती है और अपने सवाल बेमानी। इसके बाद भारत के अग्रणी साहित्यकार यू आर अनंतमूर्ति की कथा घटश्राद्ध पर आधारित फ़िल्म 'दीक्षा' दिखाई गई जिसे अरुण कौल ने निर्देशित किया है। यह फ़िल्म स्त्री के दुःख, पीड़ा और चौतरफा शोषण को दिखाकर यह स्थापित करती है कि धर्म-समाज और पुरुष सभी ने स्त्री की आकांक्षाओं और सवालों की पूरी तरह से उपेक्षा कर उसे मानव होने के अधिकार से भी वंचित किया है। इस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है। इन दोनों फ़िल्मों के प्रदर्शन के बाद दर्शकों के साथ इन फ़िल्मों से जुड़े सवालों पर संवाद भी किया गया।
फ़ेस्टिवल के तयशुदा कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए आज 'दलित कैमरा' के आठ वीडियो दिखाये गए। इनमें से चार वीडियो रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद उपजे आंदोलन से संबंधित थे और चार गुजरात के दलित आंदोलन से जुड़े हुए थे। इनमें बताया गया कि किस तरह से शैक्षणिक संस्थानों में दलित तबके से आने वाले छात्रों के साथ उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से भेदभाव किया जाता है और कैसे सत्ता इनके आंदोलन को दबाने की कोशिशें करती है। ऊना के दलित आंदोलन के वीडियो तथाकथित उच्च जाति और राज्य सरकार के दलितों के प्रति दमनकारी मानसिकता की पोल खोलते हैं और साथ ही शोषितों की एकता की बात भी करते हैं।
दलित आंदोलन से जुड़े वीडियो की स्क्रीनिंग के बाद अतुल पेठे अभिनीत नाटक 'प्रोटेस्ट' के वीडियो को दिखाया गया, जिसमें वे बिना एक शब्द बोले प्रतिरोध के बारे में बयान करते है। इसके बाद 'प्रतिरोध का नाटक' नाम से सत्र रखा गया जिसमें देश की अवधी, पंजाबी और मराठी भाषा के तीन रंगकर्मियों के साथ बातचीत की गई। ये तीन रंगकर्मी थे बृजेश यादव, सैम्युअल जॉन और अतुल पेठे। इस दौरान तीनों रंगकर्मियों ने नाटक से जुड़ाव की यात्रा और प्रतिरोध की संस्कृति के बारे में अपने अनुभव साझा किए। यहाँ बृजेश यादव ने वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े किये तो सैम्युअल जॉन ने कहा कि पढ़े-लिखे लोग दो चेहरों के साथ नज़र आते हैं जिनकी असल अभिव्यक्ति वे दुनिया से छुपाकर रखते हैं।
नाटककारों से बातचीत के बाद उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी के संयोजक धर्मराज जोशी और पूर्व संयोजक शैलेंद्र सिंह ने उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी की अब तक की यात्रा और इससे जुड़े विभिन्न पहलुओं के बारे में बताया। आज 'प्रतिरोध का संगीत' नाम से सत्र भी हुआ जिसमें प्रतिरोध की संस्कृति से जुड़े वीडियो गीत दिखाये गए। इनमें शंभाजी भगत का गीत 'हिटलर के साथी', मजमा बैंड का गीत 'सुरसुरी', मंगलेश डबराल की कविता 'तानाशाह' प्रमुख रही।
आज सबसे आखिर में नीरज घायवान निर्देशित चर्चित फ़िल्म 'मसान' दिखाई गई। जिसमें दिखाया गया कि किस तरह से समाज और सिस्टम द्वारा प्राइवेट स्पेस के अतिक्रमण करने से कई लड़कियों की ज़िंदगी बर्बाद होती है। इस फ़िल्म में अंतर्जातीय प्रेम कहानी भी है जिसके गाढ़ेपन से दर्शकों का दिल भर उठता है। यह फ़िल्म नई पीढ़ी के लोगों के समाज को बदलने की एक कोशिश को भी रेखांकित करती है।
उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी की खास बात यह रही है कि पिछले फ़ेस्टिवल के दौरान लन्दन में इससे जुड़ी एलेक्सा ने वहां फ़िल्म सोसाइटी की शुरुआत कर 'मुजफ्फरनगर बाकी है' फ़िल्म की स्क्रीनिंग की थी। इस बार भी बोस्टन शहर में 'असोशिएशन फॉर इंडियाज डेवलेपमेंट' से जुड़े लोग 'फ्लेम्स ऑफ़ फ्रीडम' फ़िल्म दिखा रहे हैं और लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में 'प्लासिबो' फ़िल्म दिखाई जा रही है। इस पहल में भी एलेक्सा ने लीडरशिप लेकर प्रतिरोध का सिनेमा भारत के बाहर लोगों तक पंहुचाया। यहाँ दोनों फ़िल्मों को लेकर निर्देशक सुब्रत कुमार साहू और प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी और उदयपुर फ़िल्म सोसाइटी के शैलेंद्र ने वहां उपस्थित दर्शकों से संवाद किया और प्रतिरोध का सिनेमा की मुहिम के बारे में बताया। यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में आधिकारिक रूप से फ़िल्म सोसाइटी के गठन की घोषणा की गई।

रिपोर्ताज: कुमार सुधीन्द्र

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