नकुल साहनी की दस्तावेजी फ़िल्म ‘मुज्ज़फ़रनगर बाक़ी है’ के समर्थन में राष्ट्रव्यापी प्रतिवाद
स्क्रीनिंग
1 अगस्त 2015 को दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज में
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ताओं ने जबरदस्ती करते हुए नकुल साहनी
की दस्तावेजी फिल्म ‘मुज्ज़फ़रनगर बाक़ी है’ के प्रदर्शन को रोक दिया. इस घटना के साक्ष्य विडिओ रिकार्डिंग के रूप में उसी दिन यू
ट्यूब , फेसबुक और तमाम दूसरी सोशल साइट्स पर जारी भी कर दिए गए थे.
दस्तावेजी फ़िल्म ‘‘मुज्ज़फ़रनगर बाक़ी है’ अगस्त 2013 में पश्चिम उत्तरप्रदेश में सुनियोजित तरीके से कराई गयी मारकाट को, नई आवारा पूँजी, सामंती समाज और सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर
गुजरने के राजनीतिक दलों के
षड्यंत्रों को बहादुरी के साथ हमारे सामने रखती है. यह दस्तावेजी फिल्म इसलिए भी ख़ास है क्योंकि आज मुख्यधारा मीडिया पूरी
तरह कोर्पोरेट के इशारे पर नाच रहा है. वह सच को सामने लाने के बजाय झूठ को सच
बनाने की मशीन बना हुआ है. दक्षिणपंथी सरकार और उसके चहेतों द्वरा
जबरदस्ती की यह घटना कोई अकेली घटना नहीं है. पिछले तीन –चार
वर्षों में ऐसी घटनाओं का दुहराव और तीव्रता हर घटना के साथ आगे ही बढ़ा है .
अगस्त 2013 में अन्धविश्वास विरोधी आन्दोलन के
सक्रिय कार्यकर्ता नरेद्र दाभोलकर की न्रशंस हत्या, पुणे में कबीर कला मंच के कलाकारों को बिना
किसी सबूत के बिला वजह जेल में बंद रखना, तीस्ता शीतलवाड़ के पीछे राज्य मशीनरी को
लागाना, पुणे में ही मशहूर दस्तावेजी
फिल्मकार आनंद पटवर्धन की फिल्म ‘राम के नाम’ के प्रदर्शन के दौरान हमला, आई आई टी मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रतिबन्ध लगाना, फासीवादियों के दवाब के चलते तमिल लेखक मुरगन का अपने ‘लेखक’ को मृत घोषित करना, बिहार में रणवीर सेना के हत्यारों का कोर्ट द्वारा लगातार बरी होना, बिना किसी सबूत के बुद्धिजीवी और शिक्षक जी एन साईबाबा को जेल में बंद रखना , एफटीआई के छात्रों के आंदोलन को बर्बरतापूर्वक
कुचलना और एकदम अभी ओडिशा के
फ़िल्मकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता देबरंजन षडंगी को झूठे आरोपों में पुलिस द्वारा फंसाना किस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं ?
मित्रों, जिन घटनाओं का ऊपर जिक्र किया गया है, पूरे देश में ऐसी घटनाओं की बाढ़ आई हुई है.बहुत
सी घटनाओं की जानकारी तक हम तक नहीं पहुँच पाती है।
इसलिए सवाल इस अँधेरे समय को चिन्हित करके इसके खिलाफ
एक मजबूत प्रतिरोध खडा करने का है. प्रतिरोध का
सिनेमा इसी कारण 1 अगस्त को दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज में नकुल साहनी की फिल्म पर
हुए हमले को कोई एक स्वतंत्र घटना न मानकर एक खतरनाक प्रवृत्ति के बतौर देख रहा है
जिसका इलाज सिर्फ प्रतिरोध है, जोरदार , दृढ़ और जान की बाजी लगाकर किया
गया प्रतिरोध. मित्रों, आप सबसे यह साझा करते हुए खुशी हो रही है कि
हमारी अपील का पूरे देश में जोरदार स्वागत हुआ और अब तक हमें 22 राज्यों के 51
शहरों से 60 से ज्यादा स्क्रीनिंग के होने की सूचना मिल चुकी है. जगहों और लोगों
की सूची हर रोज आगे बढ़ रही है,प्रतिरोध
के सिनेमा का कारवां मजबूती से प्रतिरोध की राह पर आगे बढ़ रहा है।
सब तरक्कीपसंद और लोकतंत्र
में विश्वास रखने वाले नागरिक, कलाकार, बुद्धिजीवी 25 अगस्त को नकुल सिंह साहनी की फिल्म ‘मुज्ज़फ़रनगर
बाक़ी है’ का प्रदर्शन करके इस अभियान को सामने लाए हैं
ताकि फासीवादी ताकतों के षड्यंत्रों को बेनकाब करें.
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यह प्रतिवाद स्क्रीनिंग क्यों ?
मित्रों,
प्रतिरोध का सिनेमा अभियान (cinema of resistance) पिछले दस वर्षों से देश के कई छोटे –बड़े शहरों और कसबे –मोहल्ले में जनपक्षधर सिनेमा को
आम लोगों तक उन्ही की मदद से ले जाने का काम कर रहा है. दस वर्षों की इस यात्रा
में फ़ीचर फिल्म की लोकप्रियता के बरक्स दस्तावेजी सिनेमा की जरुरत को भी इस अभियान
ने चिन्हित किया है. कोर्पोरेट पूंजी और बड़ी फंडिंग का निषेध करते हुए आम लोगों के
सहयोग द्वारा संचालित होने के कारण आज यह अभियान सहज ही जन संघर्षों पर बनी
फिल्मों के प्रदर्शन का स्वाभाविक मंच बन गया है. इसलिए 1 अगस्त 2015 को जब दिल्ली
के किरोड़ीमल कालेज में नकुल साहनी की फिल्म ‘मुज्ज़फ़रनगर
बाक़ी है’ का प्रदर्शन रोका गया तो हमारे लिए इसके
समर्थन में राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध की अपील करना कोई अजूबी बात न थी. यह
स्क्रीनिंग हम दस्तावेज़ी फिल्मकार शुभ्रदीप चक्रवर्ती की स्मृति में कर रहे हैं जो
जीवन भर फासीवाद से अपनी फिल्मों के ज़रिये संघर्ष करते रहे और 25 अगस्त को ही
पिछले साल उनकी मृत्यु हुई थी. आज 'कंधमाल दिवस' है। 2008 में आज
ही के दिन फासीवादी ताकतों ने आदिवासियों को मौत के घात उतारा था | आज पूरे देश
में जो सांप्रदायिक तांडव मचा हुआ है, उसकी एक प्रयोगशाला ओड़ीशा भी है।
अल्पसंख्यकों के कत्ले-आम का मंजर कंधमाल से लेकर अब दिल्ली तक और अयोध्या गुजरात से
लेकर उत्तर प्रदेश तक फैला हुआ है। दूसरी तरफ कांग्रेस और सांप्रदायिकता से लड़ने
का दावा करने वाले मुख्यधारा के अन्य क्षेत्रीय राजनैतिक दल डरे हुए अल्पसंख्यक
समुदाय की जिंदगी के जलते सवालों से न सिर्फ आँख चुराते रहे हैं बल्कि इस आंच में
चुनावी रोटी सेंकते रहे हैं।
25 अगस्त को पूरे देश में होने वाली इस प्रतिरोध स्क्रीनिंग को मिले अपार
समर्थन से प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का विश्वास जन सिनेमा और जन सहयोग पर और
मजबूत हुआ है. हम वायदा करते हैं कि आगे भी ऐसे मौके आने पर हम पहलकदमी लेने में
कोई कसर नहीं छोड़ेंग और सिनेमा को जनोन्मुख बनाने के लिए निरंतर प्रयास करते
रहेंगे.
प्रतिरोध का सिनेमा के लिए,
संजय जोशी
राष्ट्रीय संयोजक
9811577426
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