असुविधाजनक सवालों से उपजता है प्रतिरोध का सिनेमा- संजय जोशी
(चित्तौड़गढ़ फ़िल्म
सोसायटी की शुरुआत के अवसर पर दो दिवसीय सिनेमा केन्द्रित आयोजन की रपट)
चित्तौड़गढ़ 16 नवम्बर 2014
प्रतिरोध का सिनेमा की नयी इकाई के उदघाटन के रूप में चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी द्वारा चित्तौड़गढ़ शहर में 15-16 नवम्बर,2014 को एक सिनेमा केन्द्रित आयोजन किया गया। दर्जनभर फिल्मों की स्क्रीनिंग के साथ ही कुछ सत्रों में
पैनल चर्चाओं के साथ उपस्थित दर्शकों के साथ सार्थक संवाद भी हुए। इस मौके पर
सिनेमा की इस नयी धारा से लगभग आठ सौ विद्यार्थी, शिक्षक
और अन्य बुद्धिजीवी जुड़े। सफलतापूर्वक संपन्न इस उत्सव को एक बेहतर ओरियंटेशन और
सिनेमा की समझ विकसित करने लिए मुफीद परिचर्चा के रूप में याद किया जाएगा। पूरे तरीके
से नो स्पोंसरशिप फार्मूले पर हुए आयोजन में शहर के कई हम विचार साथियों ने अपना
अमूल्य योगदान दिया। सैनिक स्कूल, विजन स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट और
सेन्ट्रल एकेडमी सीनियर सेकंडरी स्कूल जैसी प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थाओं ने
प्रतिरोध की फिल्मों पर आधारित इस कार्यक्रम में बड़े सहायक की भूमिका निभाई।
"हमारा भारतीय सिनेमा अपनी स्थापना
के सौ साल पूरे कर चुका है। इसके
शुरुआती दशकों को छोड़ दें तो हम पाएंगे कि यह बड़ा मायावी किस्म का संसार रचता है। हम वैसी फ़िल्में देखकर अपने यथार्थ से दूर होते होते जाते हैं। मुख्य धारा के सिनेमा का अपना बड़ा बाज़ार है और उसमें लगी बड़ी
पूंजी अपने स्वार्थ के हिसाब से सिनेमा बनाती और दिखाती है। इधर लगातार हमने पाया
है कि सिनेमा से किसान, दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्ग गायब हैं। सामाजिक भेदभाव, विकास के लिए निर्माण के बाद पुनर्वास, जातिवाद, साम्प्रदायिकता जैसी बड़ी समस्याएं कभी विषय नहीं बन
पायी। ऐसे में प्रतिरोध का सिनेमा हमें अपनी
असलियत से परिचित कराता है। हमें यथार्थ के करीब ले जाता है। तकनीकी विकास के बूते
अब बहुत सस्ते में फिल्म निर्माण संभव हुआ है। हमें अपनी बात को कहने का एक सशक्त
माध्यम मिला है।"
यह विचार एक्टिविस्ट फ़िल्मकार और प्रतिरोध का सिनेमा के राष्ट्रीय
संयोजक संजय जोशी ने उत्सव के पहले दिन विजन स्कूल ऑफ़ मैनेजमेंट में आयोजित
फिल्मोत्सव के दौरान अपने मुख्य वक्तव्य में कहे। शुरुआत में सोसायटी से जुड़े डॉ. साधना मंडलोई, भंवर लाल सिसोदिया, डॉ. ए.एल.जैन ने वक्ताओं को
प्रतीक चिन्ह भेंट करके स्वागत किया। इस मौके पर जन गीतों की प्रस्तुति से
कार्यक्रम की शुरुआत हुयी जिनमें चित्तौड़ के ही प्रसिद्द गीतकार रमेश शर्मा ने लोहार गली में घर है, राष्ट्रीय ख्याति के गीतकार
अब्दुल ज़ब्बार ने मोड़ सकता
है तू ज़िंदगी के पथ पेश किया।
फ़िल्म सोसायटी के साथी संयम पुरी, दीपमाला कुमावत, भारती कुमावत, पूरण रंगास्वामी, पूजा जोशी ने ले मशाले
चल पड़े हम जैसा गीत सुनाकर सभी को रोमांचित कर दिया। खास बात यह रही कि तमाम तैयारियों
में युवा वर्ग ही अव्वल दिखा और रहा।
इस अवसर पर
प्रस्तुत ओरियंटेशन में फ़िल्मकार संजय जोशी ने सिनेमा के इतिहास, भाषा, तकनिकी को लेकर कई तथ्यों और
उदाहरणों के साथ सभी को बांधे रखा। उन्होंने पहले सत्र में कई फिल्मों के अंश स्क्रीन
किए जिनमें चेयरी टेल, पथेर पंचाली, उस्ताद
अल्लाउदीन खां , हमारा शहर, पी जैसी
फ़िल्में शामिल थी। तीन घंटे तक चले इस सिनेमा केन्द्रित विमर्श में फिल्मों के
प्रदर्शन के साथ ही जोशी ने उनके महत्व पर भी प्रकाश डाला। बाद के सत्र में उदयपुर फ़िल्म सोसायटी के संयोजक शैलेन्द्र
प्रताप सिंह भाटी ने अपने शहर में इसी आन्दोलन की मुश्किल शुरुआत से लेकर बाद के
दो सालों के अनुभव सूत्र रूप में सभी को सुनाएं। आखिर में एक सत्र दर्शकों
के साथ संवाद का रखा गया जिसमें श्रमिक नेता घनश्याम सिंह राणावत, सामाजिक कार्यकर्ता खेमराज चौधरी, शिक्षक बाबू खां मंसूरी ने विचार व्यक्त करते हुए प्रतिरोध की
इस सिनेमा संस्कृति और चित्तौड़गढ़ में इसके आगाज़ को ज़रूरी करार देते हुए सराहा।
विजन कॉलेज की रूचि बोस, बंशी लाल और उदयपुर फ़िल्म सोसायटी
के संयोजन में आयोजन स्थल पर पुस्तक प्रदर्शनी भी लगाई गयी। इस स्क्रीनिंग के बाद
दर्शकों ने अपनी राय प्रतिक्रया बोर्ड पर लिखकर भी जताई।
पंद्रह
नवम्बर शनिवार शाम ही दूसरा सत्र सैनिक स्कूल के छात्रों को ध्यान में रखते हुए
वहाँ के शंकर मेनन सभागार में हुआ जहां द चेयरी टेल, द केबिन मेन, प्रिंटेड
रेनबो,
ज़ू जैसी लघु फिल्मों का प्रदर्शन किया गया। फ़िल्म प्रदर्शन के
साथ-साथ प्रतिरोध के सिनेमा के राष्ट्रीय संयोजक ने उपस्थित चार सौ विद्यार्थियों
सहित नगर के सौ बुद्धिजीवियों को अपने आन्दोलन की मूल बातों से अवगत कराया। उन्होंने कहा कि हमारा यह सिनेमा हमें इस काबिल
बनाता है कि हम अपने आसपास का सही आंकलन कर सके। उन्होंने एक तरफ उम्र दराज़
बुजुर्ग और महानगरीय जीवन के अकेलेपन पर आधारित फिल्मों के बहाने हमारी लगातार
छीजती जाती संवेदनाओं पर ध्यान केन्द्रित किया वहीं दूजी ओर 'गाँव छोड़ब नाही' शीर्षक म्यूज़िक वीडियो दिखाकर जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े संघर्ष के
मुद्दों को ताज़ा कर दिया।
दूसरे सत्र
में कई लोग मौजूद थे जिनमें हिंदी लेखक शिव मृदुल, डॉ.
रमेश मयंक, नन्द किशोर निर्झर, वी.बी. चतुर्वेदी, यूं.एस.भगवती, अपनी माटी के सह सम्पादक कालू लाल
कुलमी, लालुराम सालवी, हंसराज सालवी शामिल हैं। यहाँ
फ़िल्म स्क्रीनिंग में ज्ञानेश्वर सिंह, मनीष जैन और मुकेश शर्मा ने स्वयंसेवक
की भूमिका अदा की। बाद में फ़िल्म सोसायटी की एक
ज़रूरी बैठक स्कूल प्राचार्य लेफ्टिनेंट कर्नल अजय ढील की अध्यक्षता में सैनिक स्कूल गेस्ट हाउस में हुयी जिसमें आन्दोलन के हित के लिए
आगे की गतिविधियों के मद्देनज़र संजय जोशी ने अभियान की मूल बातों पर ज्ञानवर्धन किया।
यहीं उपस्थित मित्रों ने कुछ जन गीत भी सुनाएं।
उत्सव के दूसरे दिन सोलह नवम्बर को महत्वपूर्ण सत्र सेन्ट्रल अकादमी
सीनियर सेकंडरी स्कूल में हुआ।यहाँ
मुख्य वक्तव्य देते हुए युवा हिंदी आलोचक हिमांशु पंड्या ने कहा कि इस बाज़ार केन्द्रित व्यवस्था में
वंचित वर्ग की पीडाओं को सिनेमा के माध्यम से सामने लाना और दर्शक वर्ग को
पीड़ा के प्रतिकार की दिशा में सक्रिय करना प्रतिरोध के सिनमा का लक्ष्य है। हमारा प्रयोजन सही सिनेमा को सही
दर्शकों तक पहुँचाना है। यह बात इसी आन्दोलन में संभव है क्योंकि यह सामुदायिक
सिनेमा है जहां सभी मिलकर नो-स्पोंसरशिप के फार्मूले पर काम करता है।जिस गति से हम
अपने पहाड़, जंगल और नदियाँ बिना विवेक के साथ सोख रहे हैं हमारी आने वाली
पीढ़ी हमें गालियाँ देगी। यहीं से प्रतिरोध की स्थितियां बनती है। प्रतिरोध के
मुद्दों पर एक समझ विकसित होने के बाद फ़िल्में बनाना सस्ता और संभव हुआ है मगर
दूसरी परेशानी यह हो गयी है कि बीते दशकों में फिल्मों का वितरण ज्यादा मुश्किल
हुआ है। दस्तावेजी फ़िल्मों की एक समानान्तर दुनिया बन चुकी है मगर अफ़सोस दर्शकों
की वहाँ तक पहुँच नहीं है। हमने यह देखा है कि जनपक्षधर गतिविधियों को जानबूझकर
हाशिये पर रखा जाता है।
राष्ट्रीय
संयोजक और फ़िल्मकार संजय जोशी ने कहा कि जन संसाधनों से जनता के लिए
निर्मित इस सिनेमा की सफलता जन रूचि के परिवर्तन में निहित है। उन्होंने बताया कि
आज सस्ती और सर्वव्यापी तकनीक ने जन सिनेमा का निर्माण संभव कर दिया है। सिनेमा की
भाषा सर्वाधिक सरल और प्रभावपूर्ण है जहां कभी-कभार शब्दविहीन होने के बाद भी
दृश्य और संगीत असरकारक हो जाते हैं। असल में प्रतिरोध का सिनेमा जनजागरण का
माध्यम है। आयोजित पैनल चर्चा में बोलते हुए सिने जानकार लक्ष्मण व्यास ने
कथित मुख्यधारा के समानान्तर जनपक्षधर सिनेमा की आवश्यकता को रेखांकित किया।
लक्ष्मण व्यास ने कहा कि हमें प्रतिरोध का सिनेमा में भी फिल्मों के चयन को लेकर
बहुत सतर्क होते हुए सभी के लिए एक से मानदंड तय करने चाहिए। आखिर में बतौर
पैनलिस्ट उदयपुर फिल्म सोसायटी के संयोजक शैलेन्द्र प्रताप सिंह भाटी ने भी अपने
आयोजकीय अनुभव सुनाए। शैलेन्द्र प्रताप ने सिनेमा के उन पक्षों को उकेरा जिनका
अमूमन हमारी जीवन शैली पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
इस मौके पर
दर्शकों के साथ हुए संवाद में कौटिल्य भट्ट ने सिनेमा के उद्देश्यों को लेकर शंका
निवारण किया वहीं हिंदी के कॉलेज प्राध्यापक डॉ.राजेश चौधरी ने समानान्तर सिनेमा
के दौर और उसकी फिलोसोफी को भी समझने और पर्याप्त तवज्जो देने की बात जोर देकर
कही। सोसायटी के साथी और शिक्षाविद डॉ.ए.एल.जैन ने कहा कि देश की
बड़ी आबादी धीमी मौत मर रही है और इस सिनेमा में उसकी व्यथा का स्वर
सुनाई देता है। डॉ. जैन ने प्रतिरोध के सिनेमा की मूल विचारधारा को लेकर भी प्रश्न
किए जिनका उत्तर उपस्थित जानकार वक्ताओं ने दिया। यहाँ फ़िल्में कम मगर चर्चा
ज्यादा विचारोत्तेजक और ज़रूरी मोड़ में चली गयी। सत्र
में दिखाई गयी फिल्मों में मृणाल सेन निर्देशित भुवनसोम का अंश और वियतनाम
युद्ध पर आधारित फिल्म नेबर्स शामिल रही जिन्हें दर्शकों ने खूब सराहा।
अतिथि वक्ताओं को स्थानीय युवा चित्रकार मुकेश शर्मा के बनाए चित्र भेंट किए
गए।
आखिर में
उदयपुर फ़िल्म सोसायटी के युवा साथियों ने जन गीत ‘तू ज़िंदा है तो ज़िंदगी की जीत में यकीन कर’ प्रस्तुत किया। आयोजन में सेन्ट्रल एकेडमी प्राचार्य अश्लेष
दशोरा, शहर के वरिष्ठ नागरिक भंवर लाल सिसोदिया, आनंद छीपा, डॉ.खुशवंत सिंह कंग, डॉ. साधना मंडलोई, संजय जैन, अभिषेक शर्मा, डॉ. सुमित्रा चौधरी, सरिता भट्ट, अधिवक्ता अब्दुल सत्तार, आकाशवाणी की उद्घोषक सीमा जोशी, कोमल
जोशी, सीमा पारीक, अपनी माटी संस्थान की सचिव डालर
सोनी कई लोग मौजूद थे। इस दो दिवसीय फ़िल्मोत्सव के तीनों
सत्रों में जनपक्षधर साहित्य और फ़िल्मों की सीडी की एक लघु प्रदर्शनी लगाई गयी
जिसका संयोजन मोहम्मद उमर, आशा सोनी और सांवर जाट, संयम पुरी, पूरण रंगास्वामी, मनीष भगत ने किया। सभी सत्रों का संचालन संस्कृतिकर्मी माणिक
ने किया।
रपट :
माणिक,चित्तौड़गढ़
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