समीक्षा: ‘गर्म हवा’: पार्टीशन का दर्द बयाँ करती एक फ़िल्म / डॉ. रेणु व्यास
(यह प्रगतिशील लेखक, अभिनेता और इप्टा के सक्रीय कार्यकर्ता बलराज साहनी का जन्म शताब्दी वर्ष है ऐसे में हमारे अनुरोध पर रेणु जी ने यह समीक्षात्मक आलेख लिख कर इस अंक का मान बढ़ाया है!गैर बराबरी के विरुद्ध अपने पूरे जीवन और फ़िल्मी दुनिया में अभिनय के में एक मिशाल की तरह जीने वाले बलराज साहनी पर रेणु जी ने थोड़े में बेहतर ढ़ंग से लिख उन्हें सच्ची शब्दांजलि दी है!-सम्पादक )
‘‘ये दाग़-दाग़ उजाला,
ये शबगज़ीदा
सहर
वो इंतज़ार
था जिसका,
ये वो
सहर तो
नहीं’’
(सुब्हे-आज़ादी - फ़ैज़
अहमद फ़ैज़)
उपमहाद्वीप
के ज्ञात-अज्ञात इतिहास
की सबसे
बड़ी त्रासदी
- देश का
विभाजन! दो
सौ साल
तक गुलामी
के अंधेरे
से संघर्ष
के बाद
भारतीय उपमहाद्वीप
को नसीब
हुई सुबह!
वह भी
दाग़दार! दाग़
भी अपने
ही भाइयों
के लहू
का! इससे
बड़ी विडम्बना
क्या होगी
कि तीन
दशकों से
आज़ादी के
आंदोलन का
नेतृत्व कर
रहे ‘बापू’
राजधानी में
दो जुड़वाँ
देशों की
आज़ादी के
पलों के
साक्षी बनने
के बजाए
नोआखाली और
कलकत्ता में
नफ़रतपरस्ती से अकेले जूझ रहे
हैं और
इस ख़ूनी
पागलपन में
अल्पविराम आया तो भी राष्ट्रपिता
के सीने
में लगी
तीन गोलियों
के से
बहे खून
से!
इस देश का
विभाजन नक्शे
पर खिंची गई लकीर-भर नहीं
था। यह
लकीर देश
के तीन
सूबों और
दो बड़े
सूबों के
आधे-आधे
हिस्सों को
बाकी देश
से इस
बिना पर
अलग कर
रही थी
कि वहाँ
रहने वाले
अधिकतर लोगों
का मज़हब
जुदा था।
बिना इस
बात की
परवाह किए
कि अलग-अलग मजहब
के लोग
केवल इन
सूबों में
ही नहीं
रहते! वे
तो पूरे
देश में
हर शहर,
गाँव, गली-मुहल्ले को
साझा तौर
पर आबाद
किए हुए
हैं। क्यों
अचानक इबादत
का मुख़्तलिफ़
तरीक़ा इतनी
बड़ी चीज़
हो गया
कि वह
हज़ार-साला
साझी तहज़ीब
को तक़सीम
करने की
वज़ह बने
? क्या आज़ादी
तो मिलेगी,
मग़र इस
बात की
नहीं कि,
इंसान अपने
पसंदीदा तरीक़े
से इबादत
भी कर
सके और
अपने ‘वतन’
में भी
रह सके
? उस वतन
में जहाँ
उसके पुरखे
सदियों से
रहते आये
हैं और
जहाँ वे
खाक़ या
राख में
तब्दील हुए
हैं ?
14-15 अगस्त 1947 को
गु़लामी की ज़ंजीरें टूटीं,
नया आज़ाद मुल्क़ मिला,
मग़र लाखों
लोगों को
अपने ‘वतन’
से बेदख़ल
करके -
‘‘इसी सरहद
पे कल
डूबा था
सूरज हो
के दो
टुकड़े
इसी सरहद
पे कल
ज़ख़्मी हुई
थी सुब्हे-आज़ादी
यह सरहद
ख़ून की,
अश्कों की,
आहों की,
शरारों की
जहाँ बोयी
थी नफ़रत
और तलवारें
उगायी थीं’’
(सुब्ह-ए-फ़र्दा - अली
सरदार जाफ़री)
इस सरहद
ने केवल
दो मुल्कों
को ही
तक़सीम नहीं
किया, बल्कि
इसने परिवारों
और दिलों
के बीच
भी अनजाने
अंदेशे और
डर की
एक लक़ीर
खींच दी।
इन्हीं हालात
का दिल
को छू
लेने वाला
एक सेल्यूलॉइड
नज़ारा एम.एस. सथ्यु
की फिल्म
‘गर्म हवा’
में किया
जा सकता
है। सियासी पार्टीशन
दो आज़ाद
मुल्क़, दो
खु़दमुख़्तार सरकारें और उनको अपने
मुस्तक़बिल से किए क़रार को
सच कर
दिखाने का
मौक़ा देता
है मग़र
उसका दर्द
आगरा शहर
में सलीम
मिर्ज़ा (जिसका
किरदार बलराज
साहनी निभाते
हैं) के
परिवार को
भुगतना पड़ता
है।
‘गर्म हवा’
की कहानी
केवल दो
भाइयों - हलीम
मिर्जा और
सलीम मिर्जा
के परिवार
के अलग
होने की
कहानी ही
नहीं है।
यह कहानी
लोगों के
दिलों में
खिंची इसी
खूनी सरहद
की वज़ह
से हुए
पार्टीशन के
बाद दो
मुल्कों के
अलग होने
से उपजे
दर्द से
गुज़रते हर
परिवार की
ज़िन्दा शहादत
की कहानी
है।
‘ऑल इंडिया
मुस्लिम लीग’
से जुड़े
हलीम मिर्जा
भारत में
मुसलमानों की हिमायत का दम
भरने के
बावज़ूद रातोंरात
पाकिस्तान रवाना हो जाते हैं
और सलीम
मिर्जा बूढ़ी
माँ की
देखभाल के
लिए (जो
पुरखों के
मकान को
छोड़ना नहीं
चाहती) यहीं
रुकने का
फैसला करते
हैं; इस
आशा के
सहारे कि
जल्दी ही
अमन-चैन
लौटेगा!
पाकिस्तान जाते
हैं - हलीम
मिर्जा और
बेघर होते
हैं - सलीम
मिर्जा! (क्यूँकि
घर हलीम
के नाम
पर था)
और जूते
बनाने का
उनका छोटा
सा कारोबार
भी बर्बाद
हो जाता
है। अब
सलीम मिर्जा
को पता
चलता है
कि अंदेशे
और डर
के इस
माहौल में
एक मुसलमान
को किराए
का घर
मिलना कितना
मुश्किल है
? हलीम मिर्जा
के बेटे
काज़िम और
सलीम मिर्जा
की बेटी
अमीना की
शादी पार्टीशन
से पहले
तय हो
गई थी,
मगर यह
सरहद इस
बार फिर
आड़े आ
गई और
बिना पासपोर्ट-वीज़ा के
भारत आए
काज़िम को
हमेशा के
लिए उसकी
मंगेतर अमीना
से दूर
ले गई।
सलीम मिर्जा
को भी
पुलिस पूछताछ
का सामना
करना पड़ा
कि उन्होंने
क्यों एक
पाकिस्तानी शहरी (जो उनका भतीजा
है और
दामाद होने
वाला है),
को बिना
सरकारी इजाज़त
अपने घर
में पनाह
दी ? यही
हादसा अमीना
के साथ
फिर दुहराया
गया जब
शमशाद भी
अमीना से
बेवफ़ाई करता
है, पाकिस्तानी
सियासतदाँ की बेटी से शादी
करने के
लिए। जैसा कि
अली सरदार
जाफ़री लिखते
हैं -
‘‘यह सरहद
लहू पीती
है और
शोले उगलती
है’’
मुल्क, कुनबे और
दिलों के
बीच खींची इस सरहद
ने लहू
पिया अमीना
का, जिसे
इस सियासत
से कोई
मतलब नहीं,
मग़र वह
सियासी मतलब-परस्तों की
शिकार बनती
है और
आखि़रकार आत्महत्या
कर लेती
है। सलीम
मिर्जा की
माँ को
आखिरी वक़्त पर अपने
ही मकान
की छत
नसीब हो
जाती है,
ख़रीददार अजमानी
की फराकदिली
से। सलीम
मिर्जा
का बड़ा बेटा बाक़र भी
बीवी-बच्चों
के साथ
पाकिस्तान जाने का फैसला करता
है। शहर
में हुए
फसाद में
एक पत्थर
सलीम मिर्जा
को भी
आकर लगता
है। दरअसल
यह पत्थर
अपने पुरखों
के वतन
को, अपनी
माँ की
ख़्वाहिश को
प्यार करने
वाले भारत
के एक
सेक्यूलर शहरी
को लगा
है, जो
बाइचांस एक
मुसलमान भी
है। टूटे
दिल से
सलीम मिर्जा
बीवी और
छोटे बेटे
सिकंदर के
साथ पाकिस्तान
जाना तय
करते हैं।
सिकंदर मिर्जा
ग्रेजुएट है
और नई
रोशनी में
पला-पढ़ा
नौजवान है।
वह बेरोज़गारी
और गै़र-बराबरी के
खिलाफ आंदोलन
में हिस्सा
लेना चाहता
है। पहले
सलीम मिर्जा
उसे रोकते
हैं, मगर
तांगे से
स्टेशन जाते वक़्त उसके
दोस्तों के
बुलाने पर
न सिर्फ़
उसे विरोध-प्रदर्शन में
जाने की
इजाज़त देते
हैं, बल्कि
तांगे को
वापस मोड़
कर बीवी
को घर
की ओर
भेज कर
वे खुद
भी इस
आंदोलन में
शामिल हो
जाते है।
यह तांगे
का ही
नहीं, सलीम
मिर्जा का
ही नहीं,
पूरे देश
का फ़िरक़ापरस्त
सियासत से
मुँह फेर
कर तरक्कीपसंद
साझी तहरीक़
की ओर
लौटना है,
जो मुल्क
का नया
मुस्तक़बिल लिखेगी।
सिकंदर मिर्जा
के किरदार
में बलराज
साहनी की एक्टिंग लाजवाब
है। दरअसल
इसे एक्टिंग नहीं कहना
चाहिए। इस
फ़िल्म में
बलराज ने
पार्टीशन के
दौरान खुद
भुगते दर्द
को दोबारा
पर्दे पर
जिया है।
उसी तरह
उनके छोटे
भाई भीष्म
साहनी ने
‘तमस’ नॉवेल
को लिखने
के दौरान
इसी तरह
अपने जाती
दर्द को
ज़माने का
बना दिया।
अजमानी के
किरदार में
ए. के.
हंगल, सलीम
मिर्जा की
बीवी के
किरदार में
शौक़त आजमी,
बूढ़ी माँ
के किरदार
में आगरा
की ही
एक उम्रदराज़
खातून - बादार
बेग़म, तांगे
वाले के
किरदार में
राजेन्द्र रघुवंशी सभी ने अपने
किरदारों के
साथ इंसाफ़
किया है।
मग़र अमीना
के किरदार
में गीता
सिद्धार्थ ने सभी देखने वालों
की आँखें
नम कर
दीं। सिकंदर
बने फारुख
शेख की
यह पहली
फिल्म है
और यादगार
भी। इस्मत
चुगताई की
कहानी को
और असरदार
ढंग से
पर्दे पर
उतारने के
लिए कहानी
में ज़रूरी
तब्दीली करने,
स्क्रीन प्ले,
डायलॉग और
नग़मों से
इसे सजाने
के लिए
कैफ़ी आज़मी
को भी
ज़रूर याद
रखा जाएगा।
मुसलमान हो
या हिन्दू,
सिख हों
या क्रिस्तान,
इस मुल्क
में अपनी
तरक्क़ी का
रास्ता बेरोज़गारी
और ग़ैर-बराबरी के
खिलाफ़ साझी
लड़ाई लड़ने
से हासिल
होगा; एक
दूसरे के
खिलाफ़ मज़हबी
दहशतगर्दी से नहीं। इस लड़ाई
में तमाशबीन
की तरह
एक तरफ़
खड़े रहने
से काम
नहीं चलेगा।
हर ज़िम्मेदार
शहरी को
इस आंदोलन
में हिस्सा
लेना होगा-
‘‘जो दूर
से करते
हैं नज़ारा,
उनके लिए
तूफ़ान वहाँ
भी हैं,
यहाँ भी
धारे में
जो मिल
जाओगे, बन
जाओगे धारा,
ये वक़्त का ऐलान
वहाँ भी
है, यहाँ
भी’’
बेस्ट स्टोरी,
बेस्ट स्क्रीन
प्ले और
डायलॉग के
लिए तीन
फिल्मफेयर अवार्ड और नरगिस दत्त
राष्ट्रीय एकता पुरस्कार से नवाज़ी
गई यह
फिल्म 1973 में बनी थी, मग़र
यह आज़
भी मौज़ू
है, क्यूँकि
फिरक़ापरस्त सियासत आज भी मुल्क
की तरक्क़ी
की राह
में आने
वाले असली
रोडों - बेरोज़गारी
और ग़ैर-बराबरी से
ध्यान भटका
रही है।
मज़हब के
नाम पर
वोटों की
सियासत आज
भी कमज़ोर
नहीं हुई
है, जिसके बरक्स मुल्क़
के मुस्तक़बिल
से जुड़े
असली मुद्दों
को रोशनी
में लाना
चाहिए और तरक्कीपसन्द सोच के सभी शहरियों
को हमक़दम
बनना चाहिए।
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