''कल रात खिड़की से आती रोशनी बंद कर दी,परदे लगा दिए,खिड़कियाँ एकदम बंद,कमरे की रोशनी का स्विच ऑफ़,कमरे का एकमात्र दरवाज़ा भी बंद हो गया तो पास बनी रसोई से आती रोशनी भी जाती रही.एकदम गुप्प अन्धेरा,आँखों के सामने था कंप्यूटर और स्क्रीन पर यूट्यूब के सहारे बिना रुके चलती हुयी फ़िल्म 'माटी के लाल' जिसे एक्टिविस्ट फिल्मकार संजय काक ने बनाया था.एकदम थिएटर के माफिक अनुभूति.एकदम अकेले.मैं जो समझ पाया कि जितना आरामदायक पॉजिशन में मैंने बिस्तर में धंसे हुए ही इस फ़िल्म को देखा-विचारा-सराहा उतना ही असुविधाजनक था इस फ़िल्म का निर्माण.जंगलों की ख़ाक छनने के कई दृश्य.पंजाब और पंजाबी बेकग्राउंड से आगाज़ करती ये फ़िल्म मुझे सीधे 'पाश' और 'भगत सिंह' से जोड़ती हुयी बनी.और यह तो जगजाहिर है कि 'भगत सिंह' और 'पाश' जैसे शब्द हमेशा से ही असुविधाजनक साबित हुए हैं.नारे, आन्दोलन, मशालें, नुक्कड़ सभाएं, धरने और पोस्टरों के कल्चर से एक बार फिर मुखातिब कराती फ़िल्म है 'माटी के लाल'.
फ़िल्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपकी कल्पना शक्ति को झकझोरे, सब कुछ सचाई के आसपास ही था जो मुझमें आश्चर्य भर रहा था कि मेरे अपने देश में कितनी कुछ गड़बड़ हैं और मैं बेख़बर.एक-एक दृश्य और अपरिचित भाषा/बोली के लोक गीतों का वो घेरा जिसके बंधन में पाकर मैंने खुद को सुविधाजनक और ज्यादा सुरक्षित-जागरूक समझा .नियमगिरि की पहाड़ियों पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जाने वाले षडयंत्र का खुलासा हो या फिर नक्सली आन्दोलन को बारीकी से समझाने वाले फिल्मांश.सबकुछ सधे हुए.दृश्य इतने साधारण-सहज-असंपादित कि जुड़ने में बड़ी आसानी अनुभव हुयी.बस फ़िल्म का मूल प्रिंट नहीं होने से लिखे हुए हिन्दी सबटाइटल पढ़ने में हुयी दिक्क़त खली.एक मुक़म्मल फ़िल्म के तौर पर संजय काक को इस फ़िल्म के बहाने समझा जाना चाहिए.साथियो,संजय भाई ने बहुत शोधपरक स्रोतों के साथ यह दो घंटे की डॉक्युमेंट्री हमें भेंट की है.विचार की दिशा को लगातार साफ़ करने में कई मित्रों का लिखा-छपा पढ़ा है अब यहाँ भी सार्वजनिक रूप से वरिष्ठ साथी संजय काक को इस प्रतिरोधी संस्कृति के एक प्रतीक 'उपहार' के लिए शुक्रिया.
आप लोग फ़िल्म देखेंगे तो खुशी होगी.ये वैसी फ़िल्म नहीं है जो हर शुक्रवार को रिलीज़ होती है.करोड़ों का बजट.अरबों की कमाई होती हो.ये फ़िल्म घाटे की फ़िल्म है.क्योंकि ये फ़िल्म समाज को गफलत में नहीं डालती.सचाई से परिचय कराती है और इधर लगातार सचाई सुनने/देखने वालों की कमी हुयी है.इन्हीं तमाम स्थितियों के बीच ऐसी फ़िल्में हमेशा बिजनस के आंकड़ों और बोक्स ऑफिस के गणित से परे ही रहतीं हैं.इस तरह की तमाम फिल्मों के साथ यही फोर्मेट काम करता है.अनुनय/विनय करके दिखाई जाती है.जो एक बार देख लेता है वो चल पड़ता है.अब चले रास्ते का विश्लेषण करने लगता है.दिशा को लेकर सोचने लगता है.सफ़र में ठिठकता हुआ चलता है.''-माणिक
Ye ek achi movie hai jise maine jana ki mere Aadiwashi logo par kitna atyachar hua hai bachpan se sunta aaya hu ki jal jungle jamin hamara hak hai hum inki hi santan hai or ye hi hamara ghar hai or bas kuch chand paiso k liye ham apna ghar tod rahe hai or sarkar hamare jamino par kabja chahti ye bhul gye hum kuch sikko ki khanak k karan
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