Saturday 20 September 2014


एक बहु धंधी आदमी के साथ अकसर ऐसा होता है कि बाक़ी रहे कामों की सूची हमेशा दिमाग में पलटे मारती रहती है।कभी-क ऐसा भी हो जाता है कि हम किसी ज़रूरी काम में उलझे होने के बावजूद किसी दूसरे बाकी काम के लिए एकदम उत्सुकता के साथ कूद पड़ते हैं।यही उल्लास मैंने खुद में तब देखा जब सहसा बेला नेगी की फ़िल्म 'दायें या बाएं' हाथ लगी।असल में यह फ़िल्म मेरे लिए छूटे हुए कामों में से लगभग आवश्यक की शरनी वाली ही थी।यों टॉकीज में जाकर फ़िल्म देखे अरसा हो गया।मुमाला यह है कि बात साल दो हजार तेरह की है जब हिमांशु पंड्या भैया और उनके साथियों द्वारा किए दो दिनी सामलाती उत्सव 'उदयपुर फ़िल्म फेस्टिवल' में जाना हुआ।उत्साह तो बहुत था फिर भी पहले यानी एक ही दिन जाना हुआ।ठीक से फिल्मों को देखने-विचारने और समझने की कसक बाकी रही।'दायें या बाएं' फ़िल्म फ़िल्म की स्क्रीनिंग नहीं देख पाए क्योंकि अगले दिन रुकने या नहीं रुकने के निर्णय के बीच उलझे भी रहे।पहले दिन बेला नेगी जी से मुलाक़ात इतनी भर हुयी कि मैंने एक अनजान दर्शक की भूमिका में उन्हें 'नमस्ते' कहा।खैर हाँ मेरी अर्धांगिनी ज़रूर उन्हें देर तक देखती ही रही क्योंकि उनका आधुनिक और लगभग साहसिक व्यक्तित्व और पहनावा उसे बेहद पसंद आ रहा था।उदघाटन सत्र में उन्हें सुनना नाम मात्र की कानापुर्ती ही कही जाए तो बेहतर रहेगा।वे बहुत थोड़ा ही बोली थी शायद कि उनकी इसी फ़िल्म को लेकर बड़े मूवी हॉल और अच्छे शहरों में ठीक से स्क्रीन नहीं किए जाने का मलाल 'दायें या बाएं' फ़िल्म से जुडा रहेगा मगर अब छोटे और कस्बेनुमा शहरों में ऐसी स्क्रीनिंग से वे ज्यादा खुश हैं।तभी एक अहसास हुआ किया कि एक रचनाकर्मी अपने असली प्रशंसक पाकर कितना खुश होता है।खैर दिशा भ्रमित होने से ठीक पहले थोड़ी सी बात फ़िल्म पर।



प्रतिरोध की संस्कृति वाली फ़िल्में देखना का यह चस्का उसी उदयपुर फ़िल्म फेस्टिवल और उसके राष्ट्रीय कर्ताधर्ता संजय जोशी जी के साथ एक चाय से लग चुका था। तभी से बदस्तूर जारी है बस जब भी मौक़ा मिला आँखें गड़ा देता हूँ। जब बेला नेगी जी की निर्देशित इस फ़िल्म पर पहुँचा तो अव्वल तो देखता ही रह गया कि बहुत खूबसूरती से उन्होंने हमारी ग्रामीण संस्कृति को हुबहू प्रस्तुत करने का बड़ा काम किया है। मैं खुद भी गाँव की पृष्ठभूमि से हूँ तो खुशी दुगुनी थी। फ़िल्म का टाइटल पूरी फ़िल्म में मन में हिचकोले खाता रहा कि अनिर्णय की यही स्थिति ही शायद नायक रमेश के साथ भी रही है जिसके चलते हुए ही बेला नेगी जी ने फ़िल्म में एक आदमी की दिशाहीन स्थिति पर व्यंग्य किया है। तभी रमेश में भारत का अमूमन आदमी नज़र आया जो इस बीच के मुश्किल समय में पूरी तरीके से न गाँव का रह पाया न शहर को समझ पाया। पहाड़ी जीवन में बीते बीस सालों में आये बदलावों को दर्शाने की एक कोशिश इस फ़िल्म का बड़ा विषय है।




एक उत्तराखंडी पहाडी गाँव हैं जहां युवा रमेश किसी महानगर से थकहार कर उदास और बुझे हुए सपनों के साथ शहरी संस्कृति के प्रति एक विमोह लिए फिर से गावं लौट आया है।इधर परिवार गंवई खेतीबाड़ी, गाय-भैंस वाली बेतरतीब ज़िंदगी से परेशान है और अब शहर जाने को खासा उत्साहित है। परिवार की आपसी खटपट दिखाई गयी है। ठेठपन की ख़ुशबू को बनाए रखने की बहुत सारी कोशिशें इस फ़िल्म में मौजूद हैं। शायरी लिखने के बहाने एक इनामी योजना में रमेश के नाम खुली 'लाल रंगी कार' भी पूरी फ़िल्म में बहुत बड़ा स्पेस घेरती हुयी दिखाई गयी है। इधर फ़िल्म में दिए कई संदेश भी हैं गोया हरियाले पेड़ काटे जा रहे हैं। पहाड़ नाराज हो रहे हैं। गाँव का स्कूल वैश्विकरण के इस दौर में बहुत पीछे जा चुका लगता है शामिल हैं।पहाड़ी जीवन की अपनी रोज़मर्रा की परेशानियां भी फ़िल्म में दिखी है।सीधे-सपाट बच्चे हैं।गाँव के रीति रिवाज़ हैं।गाँव की अड़ियल सरपंची है।सेठ साहूकारों की आमजन को साधन के रूप में काम लेने की प्रवृति पर व्यंग्य है।फ़िल्म में चुनावों के चलते गाँव की बहुप्रत्याशित मांग 'कला केंद्र' के खुलने की कहानी भी हमारी व्यवस्था पर बहुतेरे व्यंग्य कसती नज़र आती है।

फ़िल्म में मेला, गीत है, शादी-ब्याह के दृश्य हैं।टूटी हुयी सड़क है,पहाड़ी रास्ते से स्कूल जाते बच्चे हैं।बस स्टेंड पर कभी-कभार आती बसें हैं। पैदल यात्राओं के बीच इक्का-दुक्का गाड़ी-घोड़ा हैं। कामचोर मास्टर-मास्टरनी हैं। चाय की एक थड़ी है। बिखरा हुआ बचपन और दिशाहीन बच्चे हैं। ताश-पत्ती खेलते बेरोजगार जवान छोकरे हैं।जहां एक तरफ अपनी नासमझी के चलते देहाती नाबालिंग लड़कियों के प्रेम प्रसंग हैं वहीं उनके अचानक घर से प्रेमी के संग भाग जाने के किस्से भी है। दारू पीकर जीवन गुजारते ग्रामीणों सहित फ़िल्म में संक्रमण काल से सामना करते गाँव को बहुत बारीकी से फिल्माया गया है। कुलमिलाकर इस युग में एक आदमी के लगातार गधे बनने के किस्से एक साथ पिरोये गए हैं जहां हँसी का पात्र बनता हुआ आम आदमी का प्रतीक रमेश आखिर तक बहुत कन्फ्यूज रहता है कि दायें जाएँ या बाएं। ग़लत दिशा में फिसलने की हद पार करता और फिर कर्ज चुकाने के बोझ से संघर्ष करता रमेश फ़िल्म का केंद्र बिंदु है।लगभग दो घंटे की इस फ़िल्म को भी देखा जाना चाहिए। वैसे ये डॉक्युमेंट्री के बजाय कोई रूपक या आर्ट मूवी टाइप का आवरण ओढ़े लगती है। हर फ़िल्म का अपना गणित और समीकरण होते हैं फिर भी संजय काक की 'माटी के लाल' देखने के दूसरे ही दिन इसे देखना एकदम असहज होने जैसा लगा। फिलहाल बेला नेगी जी और उनकी टीम को बधाई।

माणिक

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